पुरुष जाने ये महत्त्वपूर्ण बातें -यज्ञोपवीत (उपनयन) - संस्कार क्यों-यज्ञोपवीत में तीन लड़, नौ तार और 96 चौवे ही क्यों-शौच के समय जनेऊ कान पर...
पुरुष जाने ये महत्त्वपूर्ण बातें -यज्ञोपवीत (उपनयन) - संस्कार क्यों-यज्ञोपवीत में तीन लड़, नौ तार और 96 चौवे ही क्यों-शौच के समय जनेऊ कान पर लपेटना जरूरी क्यों -yagyopaveet (upanayan) - sanskaar kyon-yagyopaveet mein teen lad, nau taar aur 96 chauve hee kyon-shauch ke samay janeoo kaan par lapetana jarooree kyon-
मनु महाराज का वचन है-
मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौजिबन्धने ।
- मनुस्मृति 2169
अर्थात् पहला जन्म माता के पेट से होता है और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है। माता के गर्भ से जो जन्म होता है, उस पर जन्म-जन्मांतरों के संस्कार हावी रहते हैं। यज्ञोपवीत-संस्कार द्वारा बुरे संस्कारों का शमन करके अच्छे संस्कारों को स्थायी बनाया जाता है।
इसी को द्विज अर्थात् दूसरा जन्म कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों इसीलिए द्विजाति कहे जाते हैं। मनु महाराज के अनुसार यज्ञोपवीत-संस्कार हुए बिना द्विज किसी कर्म का अधिकारी नहीं होता-
न यस्मिन्युज्यते कर्म किञ्चिदामौञ्जीबन्धनात् ।
- मनुस्मृति 2/171
यज्ञोपवीत संस्कार होने के बाद ही बालक को धार्मिक कार्य करने का अधिकार मिलता है। व्यक्ति को सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो जाना ही यज्ञोपवीत है। यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्त्तव्यों को अपने कंधों पर उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करना और परमात्मा को प्राप्त करना ।
पद्मपुराण कौशल कांड में लिखा है कि करोड़ों जन्म के ज्ञान अज्ञान में किए हुए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से नष्ट हो जाते हैं।
पारस्करगृह्यसूत्र 2/2/7 में लिखा है,
जिस प्रकार इंद्र को बृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था, उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और संपत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहनना चाहिए। यज्ञोपवीत धारण करने से शुद्ध चरित्र और कर्त्तव्यपालन की प्रेरणा मिलती है। इसके धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पा लेते हैं। यानी मनुष्यत्व से देवत्व प्राप्त करने हेतु यज्ञोपवीत सशक्त साधन है ।
ब्रह्मोपनिषद् में यज्ञोपवीत धारण करने का मंत्र इस प्रकार है-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्जसहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्चशुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥
अर्थात् यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है। यह आयुवर्धक,
स्फूर्तिदायक, बंधनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज को बढ़ाता है।
जो द्विजाति अपने बालकों का यज्ञोपवीत-संस्कार नहीं करते, वे अपने पुरोहित के साथ निश्चित ही नरक में जाते हैं, ऐसा नारदसंहिता में लिखा है। इसमें यह भी लिखा है कि यज्ञोपवीतरहित द्विज के हाथ का दिया हुआ चरणामृत मदिरा के तुल्य और तुलसीपत्र कर्पट के समान है। उसका दिया हुआ पिंडदान उसके पिता के मुख में काकविष्ठा के समान है।
वेदांत रामायण में लिखा है कि जो द्विजाति यज्ञोपवीत-संस्कार हुए बिना मंद बुद्धि से मंत्र जपते और पूजा-पाठ आदि करते हैं, उनका जप निष्फल है और वह फल हानिप्रद होता है
यज्ञोपवीत में तीन लड़, नौ तार और 96 चौवे ही क्यों-
यज्ञोपवीत के तीन लड़, सृष्टि के समस्त पहलुओं में व्याप्त विविध धर्मों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। तैत्तिरीय संहिता 6, 3, 10, 5 के अनुसार तीन लड़ों से तीन ऋणों का बोध होता है। ब्रह्मचर्य से ऋषिऋण, यज्ञ से देवऋण और प्रजापालन से पितृऋण चुकाया जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश यज्ञोपवीतधारी द्विज की उपासना से प्रसन्न होते हैं । त्रिगुणात्मक तीन लड़
बल, वीर्य और ओज को बढ़ाने वाले हैं, वेदत्रयी, ऋक, यजु, साम की रक्षा करती हैं। सत, रज व तम
तीन गुणों की सगुणात्मक वृद्धि करते हैं। यह तीनों लोकों के यश की प्रतीक हैं। माता, पिता और आचार्य के प्रति समर्पण, कर्त्तव्यपालन, कर्तव्यनिष्ठा की बोधक हैं।
सामवेदीय छांदोग्यसूत्र में लिखा है-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन लड़ों का सूत्र बनाया। विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों कांडों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसमें ब्रह्मगांठ लगा दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियां समेत बनकर तैयार हुआ।
यज्ञोपवीत के नौ सूत्रों में नौ देवता वास करते हैं-1. ओंकार- ब्रह्म, 2. अग्नि- तेज, 3. अनंत-धैर्य, 4. चंद्र-शीतल प्रकाश, 5. पितृगण-स्नेह, 6. प्रजापति- प्रजापालन, 7. वायु-स्वच्छता, 8. सूर्य-प्रताप, 9. सब देवता - समदर्शन। इन नौ देवताओं के नौ गुणों को धारण करना भी नौ तार का अभिप्राय है। यज्ञोपवीत धारण करने वाले को देवताओं के नौ गुण- ब्रह्मपरायणता, तेजस्विता, धैर्य, नम्रता, दया, परोपकार, स्वच्छता और शक्तिसंपन्नता को निरंतर अपनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
यज्ञोपवीत के नौ धागे नौ सद्गुणों के प्रतीक भी माने जाते हैं। ये हृदय में प्रेम, वाणी में माधुर्य, व्यवहार में सरलता, नारी मात्र के प्रति पवित्र भावना, कर्म में कला और सौंदर्य की अभिव्यक्ति, सबके प्रति उदारता और सेवा भावना, शिष्टाचार और अनुशासन, स्वाध्याय एवं सत्संग, स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता माने गए हैं, जिन्हें अपनाने का निरंतर प्रयत्न करना चाहिए।
वेद और गायत्री के अभिमत को स्वीकार करना और यज्ञोपवीत पहनकर ही गायत्री मंत्र का जाप करना 96 चौवे (चप्पे) लगाने का अभिप्राय है, क्योंकि गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं और वेद 4 हैं। इस प्रकार चारों वेदों के गायत्री मंत्रों के कुल गुणनफल 96 अक्षर आते हैं।
सामवेदी छांदोग्यसूत्र के मतानुसार तिथि 15, वार 7, नक्षत्र 27, तत्त्व 25, वेद 4, गुण 3, काल 3, मास 12 इन सबका जोड़ 96 होता है। ब्रह्मपुरुष के शरीर में सूत्रात्मा प्राण का 96 वस्तु कंधे से कटि पर्यंत यज्ञोपवीत पड़ा हुआ है, ऐसा भाव यज्ञोपवीत धारण करने वाले को मन में रखना चाहिए।
शौच के समय जनेऊ कान पर लपेटना जरूरी क्यों-
आम बोलचाल में यज्ञोपवीत को ही जनेऊ कहते हैं। मल-मूत्र त्याग के समय जनेऊ को कान पर लपेट लिया जाता है। कारण यह है कि हमारे शास्त्रों में इस विषय में विस्तृत ब्यौरा मिलता है।
शांख्यायन के मतानुसार ब्राह्मण के दाहिने कान में आदित्य, वसु, रुद्र, वायु और अग्नि देवता का निवास होता है। पाराशर ने भी गंगा आदि सरिताओं और तीर्थगणों का दाहिने कान में निवास करने का समर्थन किया है।
कूर्मपुराण के मतानुसार-
निधाय दक्षिणे कर्णे ब्रह्मसूत्रमुदङ्मुखः । अनि कुर्याच्छकृन्मूत्रं रात्रौ चेद् दक्षिणामुखः ॥
-कूर्मपुराण 13/34
अर्थात् दाहिने कान पर जनेऊ चढ़ाकर दिन में उत्तर की ओर मुख करके तथा रात्रि में दक्षिणाभिमुख होकर मल-मूत्र त्याग करना चाहिए।
पहली बात तो यह है कि मल-मूत्र त्याग में अशुद्धता, अपवित्रता से बचाने के लिए जनेऊ को कानों पर लपेटने की परंपरा बनाई गई है। इससे जनेऊ के कमर से ऊपर आ जाने के कारण अपवित्र होने की आशंका नहीं रहती। दूसरे, हाथ-पांव के अपवित्र होने का संकेत मिल जाता है, ताकि व्यक्ति उन्हें साफ कर ले। आहिककारिका में लिखा है-
मूत्रे तु दक्षिणे कर्णे पुरीषे वामकर्णके । उपवीतं सदाधार्य मैथुनेतूपवीतिवत् ॥
अर्थात् मूत्र त्यागने के समय दाहिने कान पर जनेऊ चढ़ा लें और शौच के समय बाएं कान पर चढ़ाएं तथा मैथुन के समय जैसा सदा पहनते हैं, वैसा ही पहनें।
मनु महाराज ने शौच के लिए जाते समय जनेऊ को कान पर रखने के संबंध में कहा है-
ऊर्ध्वं नाभेर्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः । तस्मान्मेध्यतमं त्वस्य मुखमुक्तं स्वयम्भुवा ॥
- मनुस्मृति 192
अर्थात् पुरुष नाभि से ऊपर पवित्र है, नाभि के नीचे अपवित्र है। नाभि का निचला भाग मल-मूत्र धारक होने के कारण शौच के समय अपवित्र होता है। इसलिए उस समय पवित्र जनेऊ को सिर के भाग कान पर लपेटकर रखा जाता है।
दाहिने कान की पवित्रता के विषय में शास्त्र का कहना है-
मरुतः सोम इन्द्राग्नी मित्रावरुणौ तथैव च । एते सर्वे च विप्रस्य श्रोत्रे तिष्ठन्ति दक्षिणे ॥
- गोभिलगृह्यसूत्र 290
अर्थात् वायु, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, मित्र तथा वरुण-ये सब देवता ब्राह्मण के दक्षिण (दाएं) कान में रहते हैं।
दूसरी बात यह है कि इससे शरीर के विभिन्न अंगों पर लाभकारी प्रभाव पड़ता है। लंदन के क्वीन एलिजाबेथ चिल्ड्रन हॉस्पिटल के भारतीय मूल के डॉ. एस. आर. सक्सेना के मतानुसार हिन्दुओं द्वारा मल-मूत्र त्याग के समय कान पर जनेऊ लपेटने का वैज्ञानिक आधार है। जनेऊ कान पर चढ़ाने से आंतों की सिकुड़ने-फैलने की गति बढ़ती है, जिससे मलत्याग शीघ्र होकर कब्ज दूर होता है तथा मूत्राशय की मांसपेशियों का संकोच वेग के साथ होता है, जिससे मूत्र त्याग ठीक प्रकार होता है।
कान के पास की नसें दबाने से बढ़े हुए रक्तचाप को नियंत्रित भी किया जा सकता है। इटली के बाटी विश्वविद्यालय के न्यूरो सर्जन प्रो. एनारीब पिटाजेली ने यह पाया है कि कान के मूल के चारों तरफ दबाव डालने से हृदय मजबूत होता है।
इस प्रकार हृदय रोगों से बचाने में भी जनेऊ लाभ पहुंचाता है आयुर्वेद में ऐसा उल्लेख मिलता है कि दाहिने कान के पास से होकर गुजरने वाली विशेष नाड़ी लोहितिका मल-मूत्र के द्वार तक पहुंचती है, जिस पर दबाव पड़ने से इनका कार्य आसान हो जाता है। मूत्र सरलता से उतरता है और शौच खुलकर होती है।
उल्लेखनीय है कि दाहिने कान की नाड़ी से मूत्राशय का और बाएं कान की नाड़ी से गुदा का संबंध होता है।
हर बार मूत्र त्याग करते समय दाहिने कान को जनेऊ से लपेटने से बहुमूत्र, मधुमेह और प्रमेह आदि रोगों में भी लाभ होता है। ठीक इसी तरह बाएं कान को जनेऊ से लपेट कर शौच जाते रहने से भगंदर, कांच, बवासीर आदि गुदा के रोग होने की आशंका कम होती है।
चूंकि मलत्याग के समय मूत्र-विसर्जन भी होता है, इसलिए शौच के लिए जाने से पूर्व नियमानुसार दाएं और बाएं दोनों कानों पर जनेऊ चढ़ाना चाहिए।
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