अभ्यास और वैराग्य दोनों ही योग और अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साधन हैं। भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ...
अभ्यास और वैराग्य दोनों ही योग और अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साधन हैं। भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इन दोनों साधने का विशेष महत्व बताया है, विशेषकर मन को नियंत्रित करने और आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए दोनों का ही महत्वपूर्ण है।
अभ्यास और वैराग्य की परिभाषाः
1. अभ्यासः अभ्यास का अर्थ है नियमित रूप से किसी भी क्रिया, विचार या सिद्धांत का निरंतर अभ्यास करना। योग में, अभ्यास का तात्पर्य है मन को एकाग्रता के साथ नियंत्रित करना और इसे ईश्वर या ध्यान के उच्चतम लक्ष्य की ओर निर्देशित करना। यह निरंतर प्रयास से ही संभव है। अभ्यास के बिना कोई भी सिद्धि प्राप्त करना कठिन है।
2. वैराग्यः वैराग्य का अर्थ है सांसारिक वस्तुओं और भोगों के प्रति आसक्ति (Attachment) को त्यागना। यह मन की वह अवस्था है, जहां मनुष्य संसार के भौतिक सुखों और इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। वैराग्य का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति संसार का त्याग कर दे, बल्कि इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों को निभाते हुए भी भौतिक सुखों के प्रति आसक्त न हो। वैराग्य के बिना मन को स्थिर रखना कठिन है, क्योंकि मन हमेशा इच्छाओं और आसक्तियों में फंसा रहता है।
भगवद गीता में अभ्यास और वैराग्यः
भगवद गीता के अध्याय 6, श्लोक 35 में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मन को वश में करना कठिन है, लेकिन यह संभव है यदि अभ्यास और वैराग्य का पालन किया जाए:
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
अर्थ: हे महाबाहु अर्जुन। इसमें कोई संदेह नहीं कि मन चंचल और उसे वश में करना कठिन है, परंतु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है।इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि मन को नियंत्रित करना सरल कार्य नहीं है, क्योंकि यह स्वभाव से ही चंचल होता है। लेकिन इसे नियंत्रित करने के लिए दो साधन दिए गए हैं:
1. अभ्यास (निरंतर अभ्यास): मन को स्थिर और एकाग्र करने के लिए निरंतर
अभ्यास आवश्यक है। अभ्यास के बिना मन भटकता रहता है और ध्यान एकाग्र नहीं हो पाता। इसलिए, भगवान कृष्ण ने अभ्यास का महत्व बताया है कि यदि मन को निरंतर अभ्यास के द्वारा सही दिशा में ले जाया जाए, तो उसे नियंत्रित किया जा सकता है।
2. वैराग्य (आसक्ति का त्याग): वैराग्य का अर्थ है भौतिक सुखों और इच्छाओं से मन को हटाना। जब तक मन विभिन्न इच्छाओं और सुखों में लिप्त रहेगा, तब तक उसे एकाग्र करना कठिन होगा। वैराग्य के माध्यम से, व्यक्ति मन को इन इच्छाओं से मुक्त कर सकता है और उसे ईश्वर या आत्मा के उच्चतम लक्ष्य की ओर निर्देशित कर सकता है।
योग, ध्यान, भक्ति और ज्ञान के मार्ग में नियमित अभ्यास का बहुत बड़ा महत्व है। अभ्यास से ही मन की चंचलता को धीरे-धीरे नियंत्रित किया जा सकता है। यह एक निरंतर और धैर्यपूर्ण प्रक्रिया है
वैराग्य, मन को भौतिक आसक्तियों से मुक्त करने का साधन है। वैराग्य के बिना, मन बार-बार बाहरी संसार की इच्छाओं और भोगों की ओर आकर्षित होता है। वैराग्य का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति को संसार से भागना चाहिए, बल्कि इसका अर्थ यह है कि वह भौतिक वस्तुओं और सुखों से स्वयं को निर्लिप्त रखते हुए, अपने लक्ष्य (आत्म साक्षात्कार या ईश्वर की प्राप्ति) की ओर बढ़े। वैराग्य के बिना मन को एकाग्र और शुद्ध करना कठिन है, क्योंकि इच्छाएं मन को भटकाती रहती हैं।
अभ्यास और वैराग्य का सामंजस्य संबंधः
मन को नियंत्रित करने और आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए अभ्यास और वैराग्य दोने ही आवश्यक हैं। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं:
अभ्यास से व्यक्ति में नियमितता और धैर्य आता है, जो मन को नियंत्रित करने में सहायता करता है।
वैराग्य से व्यक्ति भौतिक वस्तुओं और इच्छाओं के प्रति अनासक्त हो जाता है, जिससे मन को सही दिशा में केन्द्रित करना आसान हो जाता है।
यदि केवल अभ्यास किया जाए और वैराग्य न हो, तो मन भौतिक वस्तुओं की ओर खिंचता रहेगा। इसी प्रकार, यदि केवल वैराग्य हो और अभ्यास न हो, तो मन स्थिर नहीं हो पाएगा और भटकाव बना रहेगा। इसलिए, अभ्यास और वैराग्य दोनों का संतुलन आवश्यक है।
जीवन में अभ्यास और वैराग्य का महत्वः
1. मन की शांतिः अभ्यास से मन में स्थिरता आती है, और वैराग्य से इच्छाओं की अति से मुक्ति मिलती है। दोनों के समन्वय से व्यक्ति अपने जीवन में शांति प्राप्त करता है।
2. सफलता का मार्गः चाहे वह आध्यात्मिक क्षेत्र हो या सांसारिक, निरंतर अभ्यास और इच्छाओं से मुक्त होने की भावना, दोनों ही किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं। अध्यात्म में, यह व्यक्ति को आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाता है।
3. आंतरिक स्थिरताः अभ्यास से व्यक्ति के मन और भावनाओं में स्थिरता आती है, जबकि वैराग्य से बाहरी संसार की अस्थायी वस्तुओं से निर्लिप्तता उत्पन्न होती है, जिससे जीवन में संतुलन बना रहता है। मन को वश में करने के लिए अभ्यास और वैराग्य रूपी दोधारी तलवारों से वार करना होता है।
क्योंकि मन अत्यधिक चंचल है चंचलता को स्थिरता से ही नष्ट किया जा सकता है और इस सृष्टि में ईश्वर से अधिक स्थिर, नित्य, अचल, अजर, अमर कुछ भी नहीं।
निष्कर्षः अभ्यास और वैराग्य, दोनों ही योग और अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए अति आवश्यक साधन हैं। अभ्यास से मन को अनुशासित किया जाता है, जबकि वैराग्य से मन को भौतिक इच्छाओं और आसक्तियों से मुक्त किया जाता है। इन दोनों के माध्यम से व्यक्ति जीवन के अस्थायी सुख-दुखों से ऊपर उठकर आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
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