संतोष किसे मिलता है प्रेरक कथा -kise-milega-santosh महाअसंतुष्ट कथा एक बार भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी अपनी र...
संतोष किसे मिलता है प्रेरक कथा -kise-milega-santosh
महाअसंतुष्ट कथा
एक बार भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी अपनी रचना यह जगत देखने निकले। एक स्थान पर कई लोंगों को एकत्रित देख कर लक्ष्मी जी भगवान से बोली प्रभू क्या है यहां देखना चाहिये, भगवान बोले चलो यह संसार है, देखलो रूको मत। लक्ष्मी जी हठ किया बोली महाराज देख तो ले मांजरा क्या है, दोंनों मिलकर पहुंचे जहां लोग एकत्रित थे और पता किया तो लोंगों ने एक महाशय की तरफ इशारा किया और कहा यह कभी संतुष्ट नही होते हैं हमेशा इनको शिकायत रहती है। लक्ष्मी जी भगवान की ओर देखा, भगवान कहा लक्ष्मी जी आप इसके चक्कर में न पड़े यह जैसा है इसे वैसा ही रहनें दे चलो आगे बढ़ते हैं।
लक्ष्मी जी नही मानी, कहा हमें भी एक बार इसे संतुष्ट करनें का प्रयास करना चाहिये, भगवान रहस्यमयी मुस्कान मुस्कुराये और कहा ठीक है, तुम भी देखलो। लक्ष्मी जी उस व्यक्ति के पास गयी और कहा यदि आपत्ती न हो तो चलो हमारे साथ और हमारा आतीथ्य स्वीकार करो, उसने कहा चलो कहां चलना होगा, लक्ष्मी उसका हांथ पकड़ा क्षणमात्र में वैकुंठपुरी पहुंच गयी। उस व्यक्ति की व्यवस्था करवा कर परिकरों को आदेश दिया की ध्यान रहे यह हमारे विशेष अतिथी है, इन्हे सब प्रकार संतुष्ट रखना है।
इस प्रकार व्यवस्था करके लक्ष्मी जी भगवान के पास विराजमान हुई।
जिसकी व्यवस्था स्वयं लक्ष्मी जी करें भला वहां असंतुष्टि कैसे प्रवेश करे, इस प्रकार छ: महीने व्यतीत होगये, भगवान विष्णु जी एक दिन लक्ष्मी जी से कहा आप के अतिथि का क्या समाचार है ?
लक्ष्मी जी भी तो कुछ कम नहीं तिरछी चितवन से प्रभू की ओर देखा, कहा चलिए आप स्वयं देखले। भगवान श्री के साथ चले अतिथिशाला की ओर आगे आगे लक्ष्मी जी पीछे पीछे भगवान जब अतिथीशाला पहुंचे, लक्ष्मी जी ने कहा, कहो अतिथी संतुष्ट तो हो न, अतिथि हॉथ जोड़ नमस्कार किया कहा कोई कमी नहीं है माते। लक्ष्मी जी गद्गगद् होकर भगवान की तरफ देखा, भगवान भी मुस्कान बिखेर दिये।
इतने मे अतिथी लक्ष्मी और भगवान को संकेत किया और कहा बाकी तो सब ठीक है, पर एक बात हमारी समझ में नहीं आ रही की दुनियां मे इतने लोग है, यह व्यवहार हमारे साथ ही क्यों किया गया इतने दिनों से मै यही सोच रहा हूं उत्तर नहीं मिल रहा है कृपया बतायें यह व्यवहार हमारे साथ ही क्यों?
भगवान ठठा कर हंसे, लक्ष्मी जी की ओर देखा, लक्ष्मी जी संकुचित हो पैर के अंगुठे चला रही थी।
भगवान लक्ष्मी जी का हॉथ पकड़े प्रेम से उनकी ओर देखते हुए कहा चलो।।
मिटहिं न मलिन स्वभाव अभंगू।।
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