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हम बच्चो को ऐसे संस्कार विरासत मे दे रहे है कि जब स्वयं उसका बुढ़ापा आएगा तो

 हम बच्चो को ऐसे संस्कार विरासत मे दे रहे है कि जब स्वयं उसका बुढ़ापा आएगा तो  बन्दर और बन्दरिया की सोच आज बन्दर और बन्दरिया के विवाह का वर्ष...

बन्दर और बन्दरिया की सोच


 हम बच्चो को ऐसे संस्कार विरासत मे दे रहे है कि जब स्वयं उसका बुढ़ापा आएगा तो 

बन्दर और बन्दरिया की सोच

आज बन्दर और बन्दरिया के विवाह का वर्षगांठ था। बन्दरिया बड़ी खुश थी। एक नज़र उसने अपने परिवार पर डाला। तीन प्यारे-प्यारे बच्चे, नाज उठाने वाला साथी, हर सुख दुख में साथ देने वाली बन्दरों की टोली। पर फिर भी काश मैं मनुष्य होती तो कितना अच्छा होता। आज केक काटकर सालगिरह मनाते दोस्तों के साथ पार्टी करते।हाय कितना मजा आता। 

बन्दर ने अपनी बन्दरिया को देखकर तुरंत भांप लिया कि इसके दिमाग में जरूर कोई ख्याली पुलाव पक रहा है। उसने तुरंत टोका---"अजी सुनती हो। ये दिन में सपने देखना बन्द करो। जरा अपने बच्चों को भी देख लो। जाने कहां भटक रहे हैं। मैं जा रहा हूँ बस्ती में, कुछ खाने का सामान लेकर आऊंगा। आज तुम्हें कुछ अच्छा खिलाने का मन कर रहा है। "

बन्दरिया बुरा सा मुंह बनाकर चलदी अपने बच्चों के पीछे। जैसे जैसे सूरज चढ़ रहा था उसका पारा भी चढ़ रहा था। अच्छे पकवान के विषय में सोचती तो मुंह में पानी आ जाता।" पता नहीं मेरा बन्दर आज मुझे क्या खिलाने वाला है। अभी तक नहीं आया। " जैसे ही उसे अपना बन्दर आता दिखा झट से पहुंच गई उसके पास। " क्या लाए हो जी मेरे लिए। दो ना, मुझे बड़ी भूक लगी है। ये क्या तुम तो खाली हाथ आ गये।" "हां, कुछ नहीं मिला। यहीं जंगल से कुछ लाता हूँ।" "नहीं चाहिए मुझे कुछ भी। सुबह तो मजनू बन रहे थे अब साधू क्यों बन गए।" अरी भाग्यवान जरा चुप भी रह लिया कर। पूरे दिन कच कच किये रहती है।" "हां हां क्यों नहीं मैं ही ज्यादा बोलती हूँ। पूरा दिन तुम्हारे परिवार की देखरेख करती हूं। तुम्हारे बच्चों के आगे पीछे दौड़ती रहती हूं। इसने उसकी टांग खींची, उसने इसकी कान खींची, सारा दिन झगड़े सुलझाती हूं।"

"अब बस भी कर, मुंह बंद करेगी तभी तो मैं बोलूंगा। गया था मैं तेरे लिए पकवान लाने शर्मा जी के छत पर। रसोई की खिड़की से एक आलू का पराठा झटक भी लिया था मैं ने। पर तभी शर्मा जी की बड़ी बहू की आवाज़ सुनाई पड़ी - - -" अरे अम्मा जी अब क्या बताऊँ ये और बच्चे नाश्ता कर चुके हैं। मैं ने भी खा लिया है और आपके लिए भी एक पराठा रखा था मैं ने, पर खिड़की से बन्दर उठा ले गया। अब क्या करूं, फिर से चूल्हा चौका तो नहीं कर सकती। आप देवरानी जी के वहाँ जाकर खालें।"

"पर मुझे दवा खानी है बेटा।" "तो मैं क्या करूं अम्मा जी। वैसे भी आप शायद भूल गयीं हैं आज से आपको वहीं खाना है। एक महीना पूरा हो गया है आप को मेरे यहाँ खाते हुए। देवरानी जी तो शुरू से ही चालाक हैं वो नहीं आयेंगी आपको बुलाने। पर तय तो यही हुआ था कि एक महीना आप यहाँ खायेंगी और एक महीना वहां।" अम्मा जी के आंखों में आंसू थे। वे बोल नहीं पा रहीं थीं। बड़ी बहू फिर बोली---"ठीक है अभी नहीं जाना चाहती तो रुक जाइये। मैं दो घंटे बाद दोपहर का भोजन बनाऊंगी तब खा लीजिएगा।" 

बन्दर ने कहा कि मुझसे यह सब देखा नहीं गया। और मैं ने पराठा वहीं अम्मा जी के सामने गिरा दिया। बन्दरिया के आंखों से आंसू बहने लगे। उसे अपने बन्दर पर बड़ा गर्व हो रहा था। बोली---"ऐसे घर का अन्न हम नहीं खायेंगे जहां मां को बोझ समझते हैं। अच्छा हुआ जो हम मानव नहीं हुए ।

कहानी की सीख- ये कहानी हमे समझाती है कि अगर जानवर होकर एक बन्दर बड़ो की कद्र करना जानता है तो फिर मानव के अंदर से मानवता ख़त्म कैसे हो रही है। वो अपने माँ बाप की, अपने से बड़ो की इज्जत क्यों नहीं करता, उनकी देखभाल क्यों नहीं करता।

क्यों वो अपने बच्चो को ऐसे संस्कार विरासत मे दे रहा है कि जब स्वयं उसका बुढ़ापा आएगा तो उसी के बच्चे उसके साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार करें।

इसलिए अपने बड़ो की स्वाभिमान कद्र और इज्जत करना सीखे!

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