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सहानुभुति की आवश्यता

    सहानुभूति की आकांक्षा- desire for sympathy 'मनुष्य ने अपने दुख में बहुत स्वार्थ जोड़ लिए हैं। तुमने देखा, इसलिए लोग अपनी व्यथा की कहा...

  

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 सहानुभूति की आकांक्षा-desire for sympathy

'मनुष्य ने अपने दुख में बहुत स्वार्थ जोड़ लिए हैं। तुमने देखा, इसलिए लोग अपनी व्यथा की कहानियां खूब बढ़ा चढ़ाकर कहते हैं। अपने दुख की बात लोगों को खूब बढ़ा चढ़ाकर कहते हैं। इसीलिए कि दुख की बात जितनी ज्यादा करेंगे, उतना ही दूसरा आदमी पीठ थपथपाएगा, सहानुभूति देगा। लोग सहानुभूति के लिए दीवाने हैं, पागल हैं। और सहानुभूति से कुछ मिलने वाला नहीं है। क्या होगा सार अगर सारे लोग भी तुम्हारी तरफ ध्यान दे दें?'

'सहानुभूति की बड़ी आकांक्षा है कोई पूछे, कोई दो मीठी बात करे। इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर की दीनता प्रगट होती है, और कुछ भी नहीं। इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर के घाव प्रगट होते हैं, और कुछ भी नहीं। सिर्फ दीनहीन आदमी सहानुभूति चाहता है। सहानुभूति एक तरह की सांत्वना है, एक तरह की मलहम पट्टी है। घाव इससे मिटता नहीं, सिर्फ छिप जाता है। मैं तुम्हें घाव मिटाना सिखा रहा हूं।'

सहानुभूति दया, प्रेम, कोमलता, करुणा है जब किसीको दी जाती है|

जब पाने की आकांक्षा होती है यह अहंकार की कमजोरी बन जाती है|

इसलिए किसीके प्रति सहानुभूति रखनी है तो तत्पर, स्वयं को चाहिए तो सावधान|

एक ही व्यक्ति नर्म दिल, कठोर दिल दोनों नहीं हो सकता देखने में ऐसा लगता है मगर ऐसा होना संभव है|

जो अपने लिए नर्म नहीं है वह दूसरों के प्रति नर्म हो सकता है|जो अपने लिए नर्म है वह दूसरों के प्रति नर्म नहीं हो सकता|

जो सहानुभूति चाहता है वह सहानुभूति नहीं रख सकता|

कारण है सहानुभूति की चाह स्वार्थी बना देती है और स्वार्थी सहानुभूति कैसे रखेगा? उसे चाहिए|

जो सहानुभूति नहीं चाहता वह स्वार्थी नहीं है|निस्वार्थ व्यक्ति का हृदय करुणा से भरा होता है|स्वार्थ कठोर बना देता है|इसे समझना चाहिए|

जिस समाज में सहानुभूति नहीं है वह स्वार्थी है और वह नष्ट होता है|उसका बने रहना ऊपरी है|कोई घाव फैलता जाय तो ऊपरी स्वास्थ्य का होना, दिखना अर्थहीन है|

यह सब कुछ गणित के सवाल की तरह साफ है|

स्वार्थी आदमी को सहानुभूति अच्छी लगती है, निस्वार्थ आदमी को सहानुभूति बुरी लगती है|

मेरे मित्र के प्रति कोई कभी सहानुभूति दर्शाने जाता तो वह एकदम उग्र हो जाता लेकिन वह दूसरों के प्रति नर्म था, समझता उनकी तकलीफ|

प्रश्न है हम अपने को किस कक्षा में रखना चाहेंगे-पाना चाहने वाले में या रखना चाहने वाले में? 

सत्संग का उद्देश्य चीजों को स्पष्ट करना है ताकि व्यक्ति अपने लिए सच्चाई का पता लगा सके|

दूसरों के लिए ठीक है|अधिकंश लोगों को दया, प्रेम, करुणा, कोमलता, सहानुभूति की जरूरत होती है|उस जरूरत की पूर्ति बहुत शीघ्र उन्हें ऊपर उठा लेती है|

चोट उठने में असमर्थ बना देती है|एक आदमी को धक्का मारकर गिराया भी जा सकता है तथा गिरे को हाथ देकर उठाया भी जा सकता है|जो सही समझ रखता है वह हाथ देकर उठानेवालों में से होता है|उससे कई जीवों का हित होता है|

उसकी सहानुभूति लोगों के घाव भरती है लेकिन स्वयं उसके लिए सहानुभूति की मांग एक बड़ा खतरा है|तब यह तथ्य लागू हो जाता है कि-

"सिर्फ दीनहीन आदमी सहानुभूति चाहता है|सहानुभूति एक तरह की सांत्वना है, एक तरह की मलहम पट्टी है|घाव इससे मिटता नहीं, सिर्फ छिप जाता है|"

मूल प्रकृति की समझ काम देगी|एक तमोगुणी व्यक्ति सहानुभूति चाहता है, एक रजोगुणी व्यक्ति सहानुभूति चाहता है, एक सत्वगुणी व्यक्ति सहानुभूति चाहता है|

तमोगुणी व्यक्ति की मांग में घाव छिपता है, मिटता नहीं|वह सांत्वना चाहता है जो मीठी नींद सुलाने जैसा है|

रजोगुणी व्यक्ति जब सहानुभूति चाहता है तब उसका स्वार्थ स्पष्ट उभरकर आता है|कृपया (प्लीज) उसका भाव होता है|कोई चाहे तो दया करे, न करे|स्वार्थी के साथ समझौता होना बड़ी मुश्किल होता है|

सात्विक व्यक्ति को सहानुभूति चाहिए तो उसका रुख स्पष्ट होता है कि देखो मुझे कष्ट सहन नहीं होता, कृपया थोड़ी सहानुभूति रखोगे तो मुझे ठीक रहेगा, तुम्हारा भी उपकार होगा|

वह बोल देगा, मन में नाराजगी न रखेगा|सात्विक की बात में सच्चाई होती ही है|

उनकी पूर्ति भी विभिन्न लोगों के द्वारा विभिन्न तरीके से होगी|तमोगुणी व्यक्ति कहेगा-तुम्हें सहानुभूति चाहिए तो हम क्या करें? 

बस में, ट्रेन में बहुत भीड हो तो इसे देखा जा सकता है|आदमी कठोर हो जाता है, अपनी सुविधा के आगे सहानुभूति की बात वह सोचता तक नहीं|उसकी कल्पना भी नहीं उठती|

रजोगुणी हां, ना दोनों में रहता है|वह सोचता है लोगों को जगह कर देनी चाहिए, सरकार को व्यवस्था करनी चाहिए परंतु वह स्वयं उठकर किसी जरूरत मंद को जगह न देगा|

ऐसी सहानुभूति सात्विक व्यक्ति में देखने को मिलेगी|वह खुद खडा होकर जरूरत मंद को जो हो सकता है बूढा हो, बीमार हो या बालक लिए कोई स्त्री हो जगह दे देगा|

यह तो बस, ट्रेन का उदाहरण है लेकिन समाज में तो इसकी हर कदम पर जरूरत पडती है|अधिकांश लोगों को सहयोग चाहिए, केवल सहानुभूति से काम नहीं चलता|कुछ लोग केवल सहानुभूति प्रकट कर रह जाते हैं लेकिन यह सहानुभूति है क्या? नहीं है तो वह तभी सार्थक है जब किसीकी सचमुच मदद कर दी जाय|

केवल सहानुभूति प्रकट कर रह जानेवालों की बड़ी संख्या हो सकती है|ऐसे लोग कमजोर होने वाले और कमजोर करने वाले लोग होते हैं|कोई अगर उनसे ऐसी सहानुभूति चाहता है, सांत्वना चाहता है तो वह धोखे में है|अंधे अंधा ठेलिया दोनों कूप पडंत|

स्पष्ट वादी होगा तो कहेगा-देखो मुझे तुमसे सहानुभूति तो है लेकिन इससे तुम्हारा भला होने वाला नहीं है|मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ लेकिन तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना होगा|अपंग जैसा जीवन जीना ठीक नहीं|

उचित मार्गदर्शन से तो दिव्यांग बंधु भी अच्छे से जीना सीख लेते हैं|सहानुभूति तो कोई उनके प्रति भी रख सकता है पर सहानुभूति वही सही है जो सहयोग देकर आत्मनिर्भर बना दे, आत्मबल से भरा पूरा बना दे|

सहानुभूति और प्रेम में क्या फर्क है? कुछ फर्क तो है|

प्रेम प्रभु का रुप है ऐसा कहा जाता है पर सहानुभूति प्रभु का रुप है ऐसा नहीं कहा जाता |इसलिए जब प्रेम होता है सहानुभूति मदद करती है|जब प्रेम शिथिल होता है, अपनी सुविधा ज्यादा महत्व रखती है तब सहानुभूति प्रदर्शन तक सीमित रह जाती है|अच्छी होते हुए भी उसका कोई उपयोग नहीं है तो उसकी अच्छाई के आगे प्रश्नवाचक चिन्ह लगना स्वाभाविक है|

निसंदेह सहानुभूति बहुत अच्छी चीज है, संसार में इसकी आवश्यकता बहुत ज्यादा है मगर बात वही है वह प्रत्यक्ष सहयोग तभी करती है जब प्रेम हृदय में साकार हो|तब प्रेम तथा सहानुभूति दो चीजें नहीं होती, एक ही चीज होती है|

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प्रार्थना भी एक चीज है|देखा होगा कभी जनता को आपदा ग्रस्त लोगों के लिए प्रार्थना करते हुए|उसमें भी सहानुभूति तो होती ही है फिर भी प्रार्थना की शक्ति को समझना जरुरी है|अविश्वास से भरे चित्त की प्रार्थना व्यर्थ है|राग, मोह, चिंता से युक्त प्रार्थना भी असर नहीं दिखा पाती|इसलिए उसका सकारात्मक रुप है जैसे मेरा मित्र बीमार है किसी बिमारी से तो मुझे केवल उसके लिए ही नहीं, पूरे संसार में उस बीमारी से, पीड़ा से ग्रस्त लोगों के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए हृदय से  प्रार्थना करनी चाहिए|समूह के लिए की गयी निस्वार्थ प्रार्थना में अधिक बल होता है तथा वह प्रार्थना कर्ता का हृदय भी शुद्धतम बना देता है|वह सहानुभूति का ही भाव विस्तार है|

मैं प्रायः गीता का यह ईश्वरीय संदेश उद्धृत करता हूँ-

"सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शांतिमृच्छति|"

क्यों न हो, एक अकारण हितैषी के सानिध्य में भी औरों को सुख होता है तो ईश्वर तो ईश्वर है|सभी को अपना लगता है|उसका निवास भी हृदय में है जो सभी के स्व के निकटतम अनुभव का स्थान है|

उस कारण से ईश्वर सबके सर्वथा निकट है|हम भी इतने अपने पास नहीं जितना ईश्वर है अपने करुणा स्वरूप के साथ जिसकी व्याख्या सहानुभूति के रूप में की जा सकती है|

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