संस्कृत शब्द एकादशी का शाब्दिक अर्थ ग्यारह होता है। एकादशी पंद्रह दिवसीय पक्ष (चन्द्र मास) के ग्यारहवें दिन आती है। एक चन्द्र मास (शुक्ल पक्...
संस्कृत शब्द एकादशी का शाब्दिक अर्थ ग्यारह होता है। एकादशी पंद्रह दिवसीय पक्ष (चन्द्र मास) के ग्यारहवें दिन आती है। एक चन्द्र मास (शुक्ल पक्ष) में चन्द्रमा अमावस्या से बढ़कर पूर्णिमा तक जाता है, और उसके अगले पक्ष में (कृष्ण पक्ष) वह पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र से घटते हुए अमावस्या तक जाता है। इसलिए हर कैलंडर महीने (सूर्या) में एकादशी दो बार आती है, शुक्ल एकादशी जो कि बढ़ते हुए चन्द्रमा के ग्यारहवें दिन आती है, और कृष्ण एकादशी जो कि घटते हुए चन्द्रमा के ग्यारहवें दिन आती हैं। ऐसा निर्देश हैं कि हर वैष्णव को एकादशी के दिन व्रत करना चाहिये, इस प्रकार की गई तपस्या भक्तिमयी जीवन के लिए अत्यंत लाभकारी हैं।
एकादशी का उद्गम
पद्मा पुराण के चतुर्दश अध्याय में, क्रिया-सागर सार नामक भाग में, श्रील व्यासदेव एकादशी के उद्गम की व्याख्या जैमिनी ऋषि को इस प्रकार करते हैं :
इस भौतिक जगत् की उत्पत्ति के समय, परम पुरुष भगवान् ने, पापियों को दण्डित करने के लिए पाप का मूर्तिमान रूप लिए एक व्यक्तित्व की रचना की (पापपुरुष)। इस व्यक्ति के चारों हाथ पाँव की रचना अनेकों पाप-कर्मों से की गयी थी। इस पापपुरुष को नियंत्रित करने के लिए यमराज की उत्पत्ति अनेकों नरकीय ग्रह प्रणालियों की रचना के साथ हुई। वे जीवात्माएं जो अत्यंत पापी होती हैं, उन्हें मृत्युपर्यंत यमराज के पास भेज दिया जाता है, यमराज ,जीव को उसके पापों के भोगों के अनुसार नरक में पीड़ित होने के लिए भेज देते हैं।
इस प्रकार जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगने लगी। इतने सारी जीवात्माओं को नरकों में कष्ट भोगते देख परम कृपालु भगवान् को उनके लिए बुरा लगने लगा। उनकी सहायतावश भगवान् ने अपने स्वयं के स्वरुप से, पाक्षिक एकादशी के रूप को अवतरित किया। इस कारण, एकादशी एक चन्द्र पक्ष के पन्द्रवें दिन उपवास करने के व्रत का ही व्यक्तिकरण है। इस कारण एकादशी और भगवान् श्री विष्णु अभिन्न नहीं हैं। श्रीएकादशी व्रत अत्यधिक पुण्य कर्म हैं, जो कि हर लिए गए संकल्पों में शीर्ष स्थान पर स्थित है।
तदुपरांत विभिन्न पाप कर्मी जीवात्माएं एकादशी व्रत का नियम पालन करने लगीं और उस कारण उन्हें तुरंत ही वैकुण्ठ-धाम की प्राप्ति होने लगी। श्रीएकादशी के पालन से हुए अधिरोहण से , पापपुरुष (पाप का मूर्तिमान स्वरुप) को धीरे धीरे दृश्य होने लगा कि अब उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ने लगा है। वह भगवान् श्रीविष्णु के पास प्रार्थना करते हुए पहुँचा, “हे प्रभु, मैं आपके द्वारा निर्मित आपकी ही कृति हूँ और मेरे माध्यम से ही आप घोर पाप कर्मों वाले जीवों को अपनी इच्छा से पीड़ित करते हैं। परन्तु अब श्रीएकादशी के प्रभाव से अब मेरा ह्रास हो रहा है। आप कृपा करके मेरी रक्षा एकादशी के भय से करें। कोई भी पुण्य कर्म मुझे नहीं बाँध सकता है, परन्तु आपके ही स्वरुप में एकादशी मुझे प्रतिरोधित कर रही है। मुझे ऐसा कोई स्थान ज्ञात नहीं जहाँ मैं श्रीएकादशी के भय से मुक्त रह सकूं। हे मेरे स्वामी! मैं आपकी ही कृति से उत्पन्न हूँ, इसलिए कृपा करके मुझे ऐसे स्थान का पता बताईये जहाँ मैं निर्भीक होकर निवास कर सकूँ।”
तदुपरांत, पापपुरुष की स्थिति पर अवलोकन करते हुए श्रीभगवान् विष्णु ने कहा, “हे पापपुरुष! उठो! अब और शोकाकुल मत हो। केवल सुनो, और मैं तुम्हे बताता हूँ कि तुम एकादशी के पवित्र दिन पर कहाँ निवास कर सकते हो। एकादशी का दिन जो त्रिलोक में लाभ देने वाला है, उस दिन तुम अन्न जैसे खाद्य पदार्थ की शरण में जा सकते हो। अब तुम्हारे पास शोकाकुल होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि मेरे ही स्वरुप में श्रीएकादशी देवी अब तुम्हे अवरोधित नहीं करेगी।” पापपुरुष को आश्वाशन देने के बाद भगवान् श्रीविष्णु अंतर्ध्यान हो गए और पापपुरुष पुनः अपने कर्मों को पूरा करने में लग गया। भगवान विष्णु के इस निर्देश के अनुसार, संसार भर में जितने भी पाप कर्म पाए जा सकते हैं वे सब इन खाद्य पदार्थ (अनाज) में निवास करते हैं। इसलिए वे मनुष्य गण जो कि जीवात्मा के आधारभूत लाभ के प्रति सजग होते हैं, वे कभी एकादशी के दिन अन्न नहीं ग्रहण करते हैं।
एकादशी व्रत धारण करना
सभी वैदिक शास्त्र एकादशी के दिन पूर्ण रूप से उपवास (निर्जल) करने की दृढ़ता से अनुशंसा करते हैं। आध्यात्मिक प्रगति के लिए आयु आठ से अस्सी तक के हर किसी को वर्ण आश्रम, लिंग भेद या और किसी भौतिक वैचारिकता की अपेक्षा कर के एकादशी के दिन व्रत करने की अनुशंसा की गयी है।
वे लोग जो पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या काल में एक बार भोजन करके एकादशी व्रत करने की भी अनुशंसा की गयी हैं। परन्तु इस दिन किसी भी रूप में, किसी को भी, किसी भी स्थिति में अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिये।
एकादशी पर भक्तिमयी सेवा
एकादशी को उसके सभी लाभों के साथ ऐसा उपाय या साधन समझना चाहिये जो सभी जीवों के परम लक्ष्य, भगवद्-भक्ति, को प्राप्त करने में सहायक हैं । भगवान् की कृपा से यह दिन भगवान् की भक्तिमयी सेवा करने के लिए अति शुभकारी एवं फलदायक बन गया है। पापमयी इच्छाओं से मुक्त हो, एक भक्त विशुद्ध भक्तिमयी सेवा कर सकता है और परमेश्वर का कृपापात्र बन सकता है।
इसलिए, भक्तों के लिए, एकादशी के दिन व्रत करना साधना-भक्ति के मार्ग में प्रगति करने का सशक्त माध्यम है। व्रत करने की क्रिया चेतना का शुद्धिकरण करती है और भक्त को कितने ही भौतिक विचारों से मुक्त करती है। क्योंकि इस दिन की गई भक्तिमयी सेवा का लाभ किसी और दिन की गई सेवा से कई गुना अधिक होता है, इसलिए भक्त जितना अधिक से अधिक हो सके आज के दिन जप, कीर्तन, भगवान् की लीला-संस्मरण पर चर्चाएँ आदि अन्य भक्तिमयी सेवाएं किया करते हैं।
श्रील् प्रभुपाद ने भक्तों के लिए इस दिन कम से कम पच्चीस जप माला संख्या पूरी करने, भगवान् के लीला-संस्मरणों को पढ़ने एवं भौतिक कार्यकलापों में न्यूनतम संलग्न होने की अनुशंसा की है। हालाँकि, वे भक्त जो पहले से ही भगवान् की भक्ति की सेवाओं (जैसे पुस्तक वितरण, प्रवचन आदि) में सक्रियता से लगे हुए हैं, उनके लिए उन्होंने कुछ छूट दी हैं, जैसे उन खाद्यों को वे इस दिन भी खा या पी सकते है जिनमें अन्न नहीं हैं।
एकादशी का महात्म्य
श्रील जीव गोस्वामी द्वारा रचित, भक्ति-सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में से लिया हुआ एक श्लोक भर्त्सना करते हुए बताता है कि जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न ग्रहण करते हैं, वे मनुष्य अपने माता, पिता, भाइयों एवं अपने गुरु की मृत्यु के दोषी होते हैं। वैसे मनुष्य अगर वैकुंठ धाम तक भी पहुँच जाएँ तो भी वे वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। इस दिन किसी भी तरह के अन्न को ग्रहण करना सर्वथा वर्जित है, चाहे वह भगवान् विष्णु को ही क्यों न अर्पित हो।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो कोई भी एकादशी के दिन व्रत करता है वो सभी पाप कर्मों के दोषों से मुक्त हो जाता हैं और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करता है। मूल सिद्धान्त केवल उस दिन भूखे रहना नहीं है, बल्कि अपनी निष्ठा और प्रेम को गोविन्द, या कृष्ण पर और भी सुदृढ़ करना है। एकादशी के दिन व्रत का मुख्य कारण है अपनी शरीर की जरूरतों को घटाना और अपने समय का भगवान् की सेवा में जप या किसी और सेवा के रूप में व्यय करना है। उपवास के दिन सर्वश्रेष्ठ कार्य तो भगवान् श्रीगोविन्द की मंगलमय लीलाओं का ध्यान करना और उनके पावन नामों को निरंतर सुनते रहना है।
एकादशी के महत्त्व के बारे में शास्त्र-प्रमाण
नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥
अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ।
भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥
मन में भौतिक इच्छा रखने वाले लोगों ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए अथवा अपनी उद्देश्य-पूर्ति के लिए प्रत्येक एकादशी को उपवास रखना चाहिए। परंतु एकादशी का सच्चा उद्देश्य हैं भगवान् को आनंद प्रदान करना।
शुक्ल पक्ष हो या कृष्ण पक्ष हो, भरणी नक्षत्र हो या अन्य कोई भी कारण हो, भगवान् श्री हरि का प्रेम और उनके धाम की प्राप्ति करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए एकादशी को उपवास रखना आवश्यक हैं।
हज़ारों अश्वमेध यज्ञ करके और सैकडों वाजपेय यज्ञ करके जो पुण्य प्राप्त होता है, उस पुण्य की तुलना एकादशी के उपवास द्वारा प्राप्त होनेवाले पुण्य के सोलहवे हिस्से के साथ भी नहीं हो सकती।
इस पृथ्वी पर भगवान् पद्मनाभ के दिन के समान (अर्थात् एकादशी के समान) शुद्धि प्रदान करने वाला और पाप दूर कर सकने में समर्थ अन्य कोई भी दिन नहीं हैं।
ग्यारह इन्द्रियों के द्वारा (आँखें, कान, नाक, जीभ और त्वचा यह पाँच ज्ञानेंद्रिय; मुँह, हाथों , पैर, गुदद्वार और जननेंद्रिय यह पाँच कर्मेद्रिय और मन–इन के द्वारा) किये गये सर्व पाप कर्म हर एक पक्ष की ग्यारहवे दिन को (एकादशी को) उपवास करने से नष्ट हो जाते हैं।
अपना पाप नष्ट करने के लिए एकादशी के समान प्रभावी उपाय दूसरा कोई नहीं हैं। यदि कोई व्यक्ति केवल दिखावे के लिए एकादशी करता है, तो भी उस व्यक्ति को मृत्यु के उपरांत यम का दर्शन नहीं होता हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण के अवतार महर्षि वेद व्यास ने कहा है–"मेरे दिन (एकादशी को) यदि कोई व्यक्ति मुझे थोड़ा भी अन्न अर्पण करता है, तो वह नरक में जायेगा। तो कोई व्यक्ति स्वयं अन्न खाने से उस की क्या गति होगी, ये कहने की आवश्यकता नहीं हैं।"
ब्राह्मण की हत्या करना, शराब पीना–ये सब पाप एकादशी को अन्न खाने के पापों से क्षुद्र हैं।
जो मनुष्य एकादशी के पवित्र दिन अन्न खाता हैं तो वह सब मनुष्यों में हीन हैं। यदि कोई ऐसे मनुष्यों का अशुभ चेहरा देखता हैं, उसने सूर्य के तरफ़ देखकर अपने आप को पवित्र कर लेना चाहिए।
एकादशी के दिन (श्री हरि के दिन) इस पृथ्वी के उपर की सब बडे बडे पाप जैसे ब्रह्म-हत्या (ब्राह्मण को मारने का पाप) अन्न का आश्रय लेते है आनी वहाँ रहते हैं।
यदि अपने पिता, पुत्र, पत्नी या मित्र भी भगवान् पद्मनाभ के दिन यदि अन्न खायेंगे तो भी वे बडे पापियों में गिने जायेंगे।
दशमी के दिन एक ही बार खाना खायें। एकादशी के दिन पूर्ण उपवास रखना चाहिए। एकादशी के दिन श्राद्ध, तिलोदक, पिंड-प्रदान, जल-तर्पण इत्यादि कार्य नहीं करना चाहिए।
कोई भी महिला मासिक धर्म के समय भी (रजस्वला अवस्था में भी) एकादशी के दिन अन्न न खायें।
विधवा स्त्री यदि एकादशी के दिन अन्न भोजन करती हैं तो वह सब पुण्यों से रहित होती है आनी प्रति दिन एक गर्भपात करने का पाप उसे लगता हैं।
द्वादशी को तुलसी-पत्तों का चयन वर्जित
न छिन्द्यात् तुलसीं विप्र
द्वादश्यां वैष्णवः क्वचित्।
(हरिभक्तिविलास, 7/354, विष्णु-धर्मोत्तर पुराण)
हे ब्राह्मणों! एक वैष्णव द्वादशी के दिन कभी भी तुलसी पत्तों का चयन नहीं करना।
भानुवारं विना दुर्वां
तुलसीं द्वादशीं विना।
जिवितस्य अविनाशाय न
विचिन्वित धर्मवित्॥
(हरिभक्तिविलास, 7/355, गरुड-पुराण)
शास्त्र का भली भाँति अध्ययन किया हुए व्यक्ति यदि अपनी आयु को कम नहीं करना चाहता हो तो उसे रविवार के दिन दुर्वा घास और द्वादशी के दिन तुलसी के पत्तों का चयन नहीं करना चाहिए।
द्वादश्यां तुलसी पत्रं
धात्री पत्रश्च कार्त्तिके।
लुनति स नरो गच्छेत्
निरयं अति गर्हितम्॥
(हरिभक्तिविलास 7/356, पद्म-पुराण, कृष्ण और सत्यभामा के बीच का संवाद)
यदि कोई मनुष्य द्वादशी के दिन तुलसी-पत्तों का चयन करता है या कार्तिक महीने में आंवले के वृक्ष के पत्तों का चयन करता है तो उसे अत्यंत गर्हित नरक-लोक की प्राप्ति होकर दुःख का अनुभव करना पड़ता है।
by dev sharma
कोई टिप्पणी नहीं