Page Nav

HIDE

Classic Header

{fbt_classic_header}

Top Ad

khojosale.com

Breaking News:

latest

विवाह एक पवित्र संस्कार क्यों-vivaah ek pavitr sanskaar kyon-

  विवाह एक पवित्र संस्कार क्यों-vivaah ek pavitra sanskaar kyon- श्रुति का वचन है-दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण व दो आत्माओं क...

vivah sanskar


 विवाह एक पवित्र संस्कार क्यों-vivaah ek pavitra sanskaar kyon-

श्रुति का वचन है-दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण व दो आत्माओं का समन्वय करके अगाध प्रेम के व्रत को पालन करने वाले दंपति उमा-महेश्वर के प्रेमादर्श को धारण करते हैं, यही विवाह का स्वरूप है। हिंदू-संस्कृति में विवाह कभी न टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक संस्कार है, यज्ञ है। 

विवाह में दो प्राणी (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का लाभ पहुंचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह पथ पर बढ़ते हैं। यानी विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रिय सुखभोग नहीं, बल्कि पुत्रोत्पादन, संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है।

सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबंध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष की ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। 

यह व्यवस्था वैदिककाल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवर्ती (बाद के ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाश्विक संबंध मानते हुए नये वैवाहिक नियम बनाए । ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ।

आजकल बहुप्रचलित आर वेदमंत्रों द्वारा संपन्न होने वाले विवाहों को ब्राह्मविवाह कहते हैं। इस विवाह की धार्मिक महत्ता मनु ने इस प्रकार लिखी है-

दश पूर्वान् परान्वंश्यान् आत्मानं चैकविंशकम् ।

ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन् मोचये देनसः पितृन् ॥

- मनुस्मृति 3/37

अर्थात् ब्राह्मविवाह से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है-10 अपने आगे के, 10 अपने से पीछे और एक स्वयं अपनी।

भविष्यपुराण में लिखा है कि जो लड़की को अलंकृत कर ब्राह्मविधि से विवाह करते हैं, वे निश्चय ही अपने सात पूर्वजों और सात वंशजों को नरकभोग से बचा लेते हैं। आश्वलायन ने तो यहां तक लिखा है कि इस विवाहविधि से उत्पन्न पुत्र बारह पूर्वजों और बारह अवरणों को पवित्र करता है-

तस्यां जातो द्वादशावरान् द्वादश पूर्वान् पुनाति ।

भारतीय संस्कृति में अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित रहे हैं। मनुस्मृति 3 / 21 के अनुसार विवाह-ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच 8 प्रकार के होते हैं। उनमें से प्रथम 4 श्रेष्ठ और अंतिम 4 क्रमशः निकृष्ट माने जाते हैं।

विवाह के लाभों में यौनतृप्ति, वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रूप से परिपक्वता, दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख हैं। इसके अलावा समस्याओं से जूझने की शक्ति और प्रगाढ़ प्रेमसंबंध से परिवार में सुख-शांति मिलती है। इस प्रकार देखें, तो ज्ञात होगा कि विवाह-संस्कार सारे समाज के एक सुव्यवस्थित तंत्र का मेरुदंड है।

हिन्दू- विवाह भोगलिप्सा का साधन नहीं, एक धार्मिक-संस्कार है। संस्कार से अन्तःशुद्धि होती है और शुद्ध अन्तःकरण में तत्त्वज्ञान व भगवत्प्रेम उत्पन्न होता है, जो जीवन का चरम एवं परम पुरुषार्थ है । 

मनुष्य के ऊपर देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण-ये तीन ऋण होते हैं। यज्ञ-यागादि से देवऋण, स्वाध्याय से ऋषिगण तथा विवाह करके पितरों के श्राद्ध-तर्पण के योग्य धार्मिक एवं सदाचारी पुत्र उत्पन्न करके पितृऋण का परिशोधन होता । 

इस प्रकार पितरों की सेवा तथा सद्धर्म का पालन की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए संतान उत्पन्न करना विवाह का परम उद्देश्य है। यही कारण है कि हिन्दूधर्म में विवाह को एक पवित्र-संस्कार के रूप में मान्यता दी गयी है।

Read this also: पुरुष जाने ये महत्त्वपूर्ण बातें -यज्ञोपवीत (उपनयन) - संस्कार क्यों-

कोई टिप्पणी नहीं