मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में चलने वाले मनुष्य को दो बातों की आवश्यकता होती है पहला तो सृष्टि उत्पत्ति के कारणों का जानना और कारणों के कारण जो...
मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में चलने वाले मनुष्य को दो बातों की आवश्यकता होती है पहला तो सृष्टि उत्पत्ति के कारणों का जानना और कारणों के कारण जो ईश्वर है उनको प्राप्त करना, दूसरा सृष्टि के उपभोग करने की विधि को समझना। सृष्टि के कारणों और ईश्वर प्राप्ति के उपायों के ज्ञान से सृष्टि, प्रलय, ईश्वर, जीव, कर्म, कर्म फल और ईश्वर-जीवों के संयोग तथा उनकी प्राप्ति आदि का रहस्य खुल जाता है और सृष्टि के उपयोग करने की विधि के ज्ञान से अर्थ और काम के उपयोग का तात्पर्य समझ में आ जाता है. तथा दोनों के मौलिक ज्ञान और उचित उपयोग से मोक्ष हो जाता है।
अर्थ और काम के चक्र से मुक्त होना ही मोक्ष है, लेकिन इनसे पूरी तरह बचना संभव भी नहीं है। इसी कारण धर्म का सहारा लेना आवश्यक है ताकि अर्थ और काम के बीच संतुलन बनाए रखा जा सके। मनुष्य के जीवन निर्वाह के लिए भोजन, वस्त्र, और गृहस्थ जीवन की आवश्यकता होती है, जो संसार से ही प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार, मनुष्य की इच्छाओं और कामनाओं की भी पूर्ति आवश्यक होती है, जैसे परिवार, समाज में प्रतिष्ठा, और भोग-विलास। ये सभी तत्व संसार से ही प्राप्त होते हैं, और जब तक संसार के मूल कारणों का ज्ञान न हो, तब तक इनका उचित उपयोग समझ में नहीं आता। इसलिए, प्राचीन ऋषि मुनियों ने सबसे पहले संसार के कारणों को जाना और उसी के अनुसार जीवन का संचालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति की संभावना समझी।
मोक्ष का वास्तविक स्वरूप दुखों से मुक्ति और शाश्वत आनंद की प्राप्ति है। दुखों से मुक्ति का अर्थ है प्राकृतिक बंधनों, मोह, माया, भोग-विलास, और प्रमाद से मुक्त होना। न्याय दर्शन में कहा गया है कि सभी प्रकार के दुखों का कारण शरीर ही है। चाहे वह आध्यात्मिक दुःख हो, दैविक दुःख या भौतिक दुःख-ये सभी शरीर से उत्पन्न होते हैं। परंतु केवल दुखों के अंत से आनंद की प्राप्ति नहीं होती।
आनंद क्या है?
आनंद दो प्रकार का होता है:
1. सांसारिक आनंदः जिसमें व्यक्ति यह चाहता है कि उसे किसी प्रकार का दुख न हो और वह अपने जीवन, परिवार और समाज का भला करते हुए सुखी रहे.
2. आध्यात्मिक आनंदः जिसमें व्यक्ति यह चाहता है कि उसे किसी प्रकार दुख न हो और वह परमात्मा की प्राप्ति करके उस दिव्य ज्ञान का अनुभकरता रहे।
पहले प्रकार के आनंद में सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति होती है, जबकि दूसरे प्रक के आनंद में परमात्मा की प्राप्ति की अभिलाषा होती है। अब प्रश्न यह उठता है। इनमें से कौन सा आनंद श्रेष्ठ है?
सांसारिक सुख शरीर के बिना संभव नहीं है, और शरीर ही दुःख का मुख्य कार है। इस प्रकार, शरीर के साथ जो भी थोड़े बहुत सुख मिलते हैं, वे दुःख के साथ मिनि होने के कारण वास्तविक आनंद नहीं होते। अपने आप से तृप्ति प्राप्त करने की इच भी सीमित होती है क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने ही अस्तित्व से लंबे समय तक स नहीं रह सकता।
दूसरी ओर, आध्यात्मिक आनंद परमात्मा के सानिध्य और उसकी अनुभूतिः निहित होता है। स्थायी और शुद्ध आनंद की प्राप्ति के लिए हमें शाश्वत और शुद्ध क की आवश्यकता होती है, जो केवल परमात्मा ही हो सकता है। उपनिषदों में का गया है: "तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनंदरुपमृतं यद्विभाति" (मुण्ड 2.21 (केवल विद्वान लोग ही उस अमृत समान आनंद की अनुभूति करते हैं जो पूर्ण ज्ञानः प्राप्त होता है।। यह आनंद शुद्ध, स्थायी और दुखों से रहित होता है। जब अक्रि (अज्ञान) का नाश हो जाता है, तो जीव के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं- अधर्म, अन्याय और विषयासक्ति जैसी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। तब जीव को फिर से जन्म ले की आवश्यकता नहीं रहती और वह शाश्वत आनंद का अनुभव करता है। यही मोरे की स्थिति है।
मोक्ष की अवस्था में व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की प्राप्ति या ज्ञान की लालसा नह रखता, क्योंकि उसने सब कुछ जान लिया होता है। यह ज्ञान उसे संसार के बंधनों मुक्त कर देता है और आत्मा को परमात्मा के साथ एकाकार कर देता है। इस प्रकार मोक्ष वह अवस्था है जब आत्मा और परमात्मा के बीच का भेद समाप्त हो जाता और आत्मा परान्तकाल तक परमात्मा के साथ लीन हो जाती है। यही मोक्ष का वैदिन और शुद्ध स्वरूप है।
अष्टांग योग और अन्य तप, ध्यान, और उपासना की प्रक्रियाएं शरीर में रहते हुए मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में शरीर रहते अष्टांग योगने अभ्यास द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए, क्योंकि बिना शरीर के मोक्ष सिद्धि असंभव है।
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