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मृत्यु उपरांत आत्मा कहां जाती है ?

आत्मा/जीवात्मा का स्वरूप अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। इसका कभी नाश नहीं होता, चाहे शरीर नष्ट हो जाए। जिस प्रकार एक व्यक्ति पुराने वस्...


आत्मा/जीवात्मा का स्वरूप अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। इसका कभी नाश नहीं होता, चाहे शरीर नष्ट हो जाए। जिस प्रकार एक व्यक्ति पुराने वस्त्रों को त्यागकर भए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा एक शरीर को त्यागकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक जीव मोक्ष/मुक्ति को पाप्त नहीं कर लेता। जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है और उन कर्मों के फल भोगता है। मृत्यु केवल शरीर की होती है, आत्मा हमेशा अविनाशी रहती है।

भगवद गीता में कहा गया है:

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।'' (2.23)

अर्थात, आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। आत्मा स्थिर, अचल, अविनाशी, और सनातन है। यह अव्यक्त, अचिंत्य और विकार रहित है।

आत्मा का स्वभाव

आत्मा इंद्रियातीत है, अर्थात इसे रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श के माध्यम से अनुभव नहीं किया जा सकता। यह इसलिए भी है क्योंकि आत्मा इंद्रियों के परे है, इसे न तो देखा जा सकता है और न ही सुना जा सकता है। आत्मा का अनुभव केवल ज्ञान की दृष्टि से ही किया जा सकता है। इसलिए आत्मा का स्वरूप अव्यक्त और अपरिभाष्य है, जो केवल आध्यात्मिक दृष्टि और साधना से ही समझा जा सकता है।

आत्मा का निवास स्थान

शास्त्रों के अनुसार, आत्मा का निवास हृदय में होता है। परमात्मा स्वयं पूर्ण ज्ञान स्वरूप और सर्वज्ञ हैं, जबकि जीवात्मा अल्पज्ञ है। जो थोड़ा सा ज्ञान जीवात्मा में होता है, वह भी परमात्मा से ही प्राप्त हुआ है, जैसे कि छाया में जो थोड़ा प्रकाश होता है, वह सूर्य के प्रकाश का अंश होता है। इसी प्रकार, जीवात्मा परमात्मा के अंश रूप में शरीर के हृदय में वास करता है।

जिस प्रकार चंदन की गंध हर जगह फैल जाती है, उसी प्रकार हृदय में स्थित जीवात्मा अपने विज्ञान रूप गुण से पूरे शरीर में व्याप्त हो जाता है। इस प्रकार, जीवात्मा पूरेशरीर में अनुभव कर सकता है कि कहाँ सुख है और कहाँ दुख। हालाँकि वह हय में स्थित है, फिर भी उसकी उपस्थिति समस्त शरीर में अनुभव की जा सकती है।

मृत्यु के पश्चात आत्मा की यात्रा

जब शारीर की मृत्यु होती है, तो "उदान वायु" शरीर से निकल जाती है, जिससे शरी ठंडा हो जाता है। इस समय जीवात्मा अपनी इंद्रियों और मन को साथ लेकर उदान वायु के साथ अगले लोक की यात्रा करता है। जीवात्मा की गति उसके अंतिम संकल और कर्मों पर निर्भर होती है। मृत्यु के समय उसका जो संकल्प होता है, उसी के आधार पर सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है। यह सूक्ष्म शरीर पहले सोम (चंद्रमा के तत्व) में स्थित होता है, फिर मेघ (बादल) में, मेघ से वृष्टि (वर्षा) जल में, जल से अन्न में और अंततः अन्न से वीर्य में स्थानांतरित होता है। इसके बाद वीर्य के माध्यम से जीवात्मा गर्भ में प्रवेश करता है।

इस प्रकार, परमात्मा जीवात्मा को संकल्प और कर्म के आधार पर विभिन्न योनियों में ले जाता है। जीवात्मा के साथ प्राण, मन, इंद्रियां और सूक्ष्म तत्व भी चलते हैं, और वह एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता है।

आत्मा के इस निरंतर यात्रा और शरीरों के परिवर्तन का उद्देश्य अंततः मोक्ष की प्राप्ति है, जहां आत्मा परमात्मा में विलीन होकर जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है। 


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