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क्या वास्तव में पुनर्जन्म होता है या नही ?

पुनर्जन्म का सिद्धांत भारतीय दर्शन और वेद, उपनिषदों, गीता एवं अन्य शास्त्रों में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह आत्मा अमर है और शरीर क...


पुनर्जन्म का सिद्धांत भारतीय दर्शन और वेद, उपनिषदों, गीता एवं अन्य शास्त्रों में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह आत्मा अमर है और शरीर केवल एक माध्यम है जिसके द्वारा आत्मा अपने कर्मों का फल भोगती है। जब शरीर नष्ट होता है, आत्मा नए शरीर में प्रवेश करती है और यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक आत्मा अपने सभी कर्मों के फल भोगकर मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती। पुनर्जन्म कर्म के आधार पर होता है, और यह प्रक्रिया कर्मों के फल स्वरूप चलती रहती है।

वेदों में पुनर्जन्म और कर्म

वेद, पुनर्जन्म के बारे में सीधे तौर पर कुछ नहीं कहता, लेकिन इसके कर्मकांड और यज्ञों के विवरण पुनर्जन्म के सिद्धांत को संकेत करते हैं। यज्ञ और धार्मिक कर्म वेदों के अनुसार मनुष्य के लिए आवश्यक माने गए हैं ताकि वह अपने भविष्य के जीवन को उत्कृष्ट बना सके।

पुनर्जन्म का शाब्दिक अर्थ है "पुनः जन्म लेना"। इसका अर्थ यह है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा नष्ट नहीं होती, बल्कि वह नए शरीर को धारण करती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक आत्मा अपने कर्मों का फल भोगकर मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेती। शास्त्रों के अनुसार, यह आत्मा अनादि काल से कर्मों का भोग करती आ रही है और तब तक यह चक्र चलता रहेगा जब तक आत्मा पूरी तरह से कर्म बंधन से मुझ नहीं हो जाती।47

यजुर्वेद में पुनर्जन्म की प्रक्रिया को यज्ञों और कर्मकांडों से जोड़ा गया है। यह कहा गया है कि जो व्यक्ति धर्मानुसार कर्म करता है, उसे अगले जन्म में अच्छे फल प्राप्त होते हैं।

"अग्निर्देवो देवयानम्... यत्र कामः प्रवर्तनते" (यजुर्वेद 40.6)

अर्थात्, "अग्नि के माध्यम से धर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति वहां जाता है, जहां उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं।"

वेद के इस मंत्र में पुनर्जन्म के संबंध में संकेत मिलता है, जहां व्यक्ति अपने पुण्य कर्मों के फलस्वरूप उच्चतर लोकों या पुनर्जन्म में सुखद स्थिति को प्राप्त करता है।

उपनिषदों में पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धांत का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। इन ग्रंथों में पुनर्जन्म को आत्मा के मोक्ष प्राप्त करने से पहले की प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। आत्मा अपने कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म लेती है और जब तक कर्मों के बंधन से मुक्त नहीं हो जाती, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र में बंधी रहती है।

बृहदारण्यक उपनिषद में पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत को स्पष्ट किया गया है:

"स यथाकर्म यथाश्रुतं ततो भवति" (4.4.5)

अर्थात, "व्यक्ति जैसा कर्म करता है और जैसा ज्ञान प्राप्त करता है, उसके अनुसार ही वह अगला जन्म धारण करता है।"

यह श्लोक इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि मनुष्य अपने कर्मों के आधार पर ही अगला जन्म धारण करता है। पुण्य कर्म करने वाला व्यक्ति उच्च योनियों में जन्म लेता है, जबकि पाप करने वाला व्यक्ति निम्न योनियों में जन्म लेने के लिए बाध्य होता है।

छांदोग्य उपनिषद में भी कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को विस्तृत रूप से समझाया गया है। यह कहा गया है कि व्यक्ति अपने कर्मों के आधार पर विभिन्न योनियों में जन्म लेता है।

"तं यथा यथा उपासते तद्रेव भवति" (3.14.1)

अर्थात, "जिस प्रकार व्यक्ति अपने कर्म और उपासना करता है, वैसा ही वह अगले जन्म में उत्पन्न होता है।"

यहां पुनर्जन्म की प्रक्रिया कर्म और व्यक्ति की उपासना पद्धति पर निर्भर मानी गई है। इस श्लोक में यह स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति अपने कर्मों के आधार पर अच्छे या बुरे जन्मों को प्राप्त करता है।48

भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने पुनर्जन्म और कर्म का गहन विश्लेषण किया है। गीता में आत्मा की अमरता और कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म के संबंध में विस्तार से बताया गया है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि आत्मा अमर है और यह शरीर केवल नश्वर है। आत्म शरीर बदलती है, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है।

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, अन्याणि संयाति नवानि देहि ॥" (भगवद गीता 2.22)

अर्थात, "मनुष्य जैसे पुराने वस्त्र त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्म पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर को धारण करती है।"

यह श्लोक स्पष्ट करता है कि आत्मा अमर है और वह कर्मों के आधार पर नए शरी में पुनर्जन्म लेती है। भगवद गीता में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति अपने कर्मों के आधार पर अगला जन्म प्राप्त करता है।

"उर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। जघन्यगुणवृत्तिस्थ अधो गच्छन्ति तामसाः।" (14.18)

अर्थात, "सात्विक गुणों वाले लोग उच्च लोकों को प्राप्त होते हैं, राजसिक गुण वाले बीच में रहते हैं, और तामसिक गुण वाले निम्न लोकों को प्राप्त होते हैं।"

यह श्लोक स्पष्ट करता है कि कर्म और गुणों के आधार पर व्यक्ति को विभिन्न लोकों या योनियों में पुनर्जन्म मिलता है। अच्छे कर्म और सात्त्विक गुण व्यक्ति को उच्च योनियों में ले जाते हैं, जबकि बुरे कर्म और तामसिक गुण उसे निम्नतर योनियों में धकेलते हैं।

कर्म के अनुसार मोक्ष या पुनर्जन्म

भगवान श्रीकृष्ण गीता में यह भी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने कर्मों को फल की इच्छा से मुक्त होकर करता है, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है:

"यस्य नहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वाऽपि स इमाल्लोकन्न हन्ति न निबध्यते ॥" (18.17)49

अर्थात, "जिस व्यक्ति का अहंकार नहीं है और बुद्धि शुद्ध है, वह कर्म करने के पश्चात कर्म के बंधनों में नहीं फंसता।"

इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि निष्काम कर्म योग (फल की इच्छा के बिना कर्म) के माध्यम से व्यक्ति पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो सकता है और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।

श्रेष्ठ शरीर की प्राप्ति कर्मों से मनुष्य को अपने जीवन में ऐसे कर्म करने चाहिए जो केवल स्वयं के लिए नहीं, बल्कि सभी प्राणियों के हित में हों। जब भी हम अज्ञान और अहंकार से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, तो प्रायः उसका परिणाम दूसरों के लिए दुखदायी होता है। यह संसार का अपरिवर्तनीय नियम है: यदि हम किसी को पीड़ा देंगे, तो वह पीड़ा किसी न किसी रूप में हमें वापस मिलेगी। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम किसी भी जीव, चाहे वह मनुष्य हो, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, या पेड़-पौधे हों, किसी को भी कष्ट न पहुँचाएँ। सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का फल भोगने के लिए विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं, और उनकी उस यात्रा में हस्तक्षेप करना सृष्टि के नियमों का उल्लंघन है। मनुष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह ऐसे कर्मों से बचे जो उसे पशु, पक्षी या वृक्ष जैसी योनियों में जन्म लेने के लिए बाध्य करें। वास्तव में, मनुष्य शरीर भी दुःख, रोग, भय, चिंता, और मृत्यु जैसे कष्टों से भरा हुआ है। इस जीवन में भी हमें पूर्ण स्वतंत्रता नहीं मिलती, बल्कि कई तरह की परतंत्रताएँ झेलनी पड़ती हैं। इसलिए, मनुष्य को चाहिए कि वह इन शरीरों के जन्म-मरण के चक्र से निकलने का प्रयास करे और ऐसे कर्मों का चयन करे जो न केवल उसे मोक्ष के मार्ग पर ले जाएं, बल्कि अन्य प्राणियों के जीवन को भी बिना किसी कष्ट के संपन्न करें।

सृष्टि के नियमों के अनुसार, प्रत्येक प्राणी की जाति, आयु और कर्म फल निर्धारित हैं। हमें उनका सम्मान करते हुए, उनकी आयु और कर्मों का भोग करने में सहायता करनी चाहिए। किसी भी प्राणी की अकाल मृत्यु का कारण न बनें और उनकी भलाई के लिए हर संभव प्रयास करें। यही सच्ची मानवता है और यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

पुनर्जन्म की आवश्यकता क्यों होती है

सृष्टि उत्पत्ति का प्रधान कारण जीवों के कर्म और परमेश्वर का न्याय ही है। जीव अनादि काल से कर्म करते हुए चले आ रहे हैं और परमात्मा भी अनादि काल से उनको कर्म फल देता हुआ चला रहा है। इसलिए प्रत्येक प्रलय के बाद नवीन सृष्टि होती है। और जीवों के शेष कर्मों के अनुसार उनको नाना प्रकार की योनियों में उत्पन करता है।

जीवात्मा जब शरीर को धारण करती है, तब वह एक देशीय होने के कारण अपने अपने से भिन्न अन्य पदार्थ की प्राप्ति की इच्छा से सदैव कुछ ना कुछ प्रयत्न किय करती है। इस प्रयत्न से संघर्ष उत्पन्न होता है, और उस संघर्ष से बहुत से महान का होने लगते हैं। कभी-कभी तो इनमे अत्यंत अत्याचारी जीव उत्पन्न हो जाते हैं कि उनकी सम्मिलित क्रियाओं से सृष्टि में उथल-पुथल होने लगती हैं, तथा श्रेष्ठ प्राणियों को घोर यातनाएं भोगनी पड़ती है। ऐसी दशा में अपनी उच्च सभ्यता, न्याय और दव से प्रेरित होकर परमात्मा सृष्टि नियमों की रक्षा करने के लिए और दुष्टों से श्रेष्ठों के रक्षा व क्षतिपूर्ति दिलाने के लिए विवश होता है। दया, धर्म और न्याय स्वरूप परमात्म दुष्ट अत्याचारी जीवों को दंड देकर व अत्याचार सहने वाले श्रेष्ठों को प्रतिफल दिल कर सृष्टि नियमों की रक्षा करता है। यह न्याय वह ना ना प्रकार की योनियों को बनाका करता है। और एक योनि से दूसरी योनि को लाभ पहुंचाता है, अर्थात पूर्व जन्म का प्रतिफल दिलाता है क्योंकि जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र है फल भोगने के लिए परतंत्र। यही परमात्मा के सृष्टि के नियमन का कारण है।

कर्मानुसार शरीर धारण के सिद्धांत

सभी कर्मों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया हैः सात्विक, राजसिक और तामसिक। इन्हें सरल शब्दों में आचार, अनाचार और अत्याचार भी कहा जाता है। ये तीनों कर्म बुद्धि, अज्ञानता, और प्रमाद के आधार पर किए जाते हैं।

सात्विक कर्म वह है जो सृष्टि के नियमों और धर्म के अनुकूल, विवेकपूर्ण तरीके से किया जाता है। जब कोई व्यक्ति जागरूकता और बुद्धिमत्ता से अपने कर्तव्यों का पालन करता है, तो इसे सात्विक या आचार कहा जाता है।

राजसिक कर्म का तात्पर्य है बिना किसी गहन विचार या सृष्टि के नियमों की जानकारी के, आवेगपूर्ण और अंधाधुंध तरीके से कार्य करना। यह कार्य बिना किसी उचित दिशा के किए जाते हैं और इन्हें अनाचार माना जाता है।

तामसिक कर्म वे होते हैं जो प्रमाद, आलस्य, और अहंकार से प्रेरित होते हैं, और ये सृष्टि के नियमों के विपरीत चलते हैं। ऐसे कर्म अधर्म का प्रतीक होते हैं और इन्हें अत्याचार कहा जाता है।

प्रकृति के नियमों के अनुसार, इन तीनों प्रकार के कर्मों के आधार पर तीन प्रकार के शरीर उत्पन्न होते हैं: मनुष्य, पशु और वृक्ष। सात्विक कर्मों के माध्यम से ज्ञान से51

परिपूर्ण मनुष्य का जन्म होता है, जो विवेक और कर्म करने में समर्थ होता है। राजसिक या अनाचार कर्म करने से अज्ञानपूर्ण पश्शु का शरीर मिलता है, जो कर्म करने में सक्षम होता है, लेकिन ज्ञान से वंचित होता है। और तामसिक या अत्याचार कर्म करने से व्यक्ति वृक्ष या पौधे का शरीर प्राप्त करता है, जो न ज्ञान में सक्षम होता है और न ही कर्म करने में।

इस प्रकार तीन प्रकार के कर्मों के परिणामस्वरूप तीन प्रकार के जीवन-शरीर उत्पन्न होते हैं: मनुष्य, पशु और वृक्ष। इन तीनों में, मनुष्य ज्ञान और कर्म दोनों में सबसे समर्थ है। पशु ज्ञान से वंचित होते हैं, लेकिन कुछ सीमा तक कर्म करने में सक्षम होते हैं, और वृक्ष न ज्ञान में सक्षम होते हैं और न कर्म करने में।

इस प्रकार कर्म और जीवन के बीच यह गहरा संबंध हमारी सृष्टि के विविध स्वरूपों को निर्धारित करता है।

सृष्टि में पहले भोग्य उत्पन्न होता है या भोक्ता

संसार का यह नियम है कि जो ज्ञान और कर्म में पूर्ण होता है, वह ज्ञानहीन का उपभोक्ता बनता है। अर्थात, पहले भोग्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं, और उनके पश्चात - उन्हें भोगने वाले उत्पन्न होते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, जब पशुओं के लिए आवश्यक वृक्ष, पेड़-पौधे आदि उत्पन्न हो जाते हैं, तब पशु उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार, जब मनुष्य के भोग्य पदार्थ, जैसे वृक्ष, अन्न आदि, उत्पन्न हो जाते हैं, तब उन्हें भोगने के लिए मनुष्य का जन्म होता है।

इस नियम के अनुसार, इस चेतना से युक्त सृष्टि में सबसे पहले वृक्षों का निर्माण हुआ। वृक्षों के बाद पशु उत्पन्न हुए, और पशुओं के बाद मनुष्य का जन्म हुआ। वेदों में चेतन सृष्टि की उत्पत्ति का यही क्रम बताया गया है। यजुर्वेद के मंत्र इस बात की पुष्टि करते हैं:

"संभूतं पृष्ठेदाज्यम्। पशून्तांश्चके वैव्यानारण्यं ग्राम्यश्च ये।" (31.16) इन श्लोकों का अर्थ यह है कि सबसे पहले वनस्पति उत्पन्न होने वाले, उड़ने वाले, फिर अरण्यों में विचरण करने वाले और ग्रामों में रहने वाले पशु उत्पन्न हुए। इनके बाद मनुष्य समाज प्रकट हुआ।

इस प्रकार से समस्त चेतन सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम वनस्पतियों से प्रारंभ होकर पशुओं और फिर मनुष्यों तक पहुंचता है, जो सृष्टि के विकास की एक अद्भुत प्रक्रिया को दर्शाता है।

कर्मानुसार पुनर्जन्म का सिद्धांत

मनुष्य को सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी माना जाता है, परंतु जब वह इस बुद्धि का दुरुपयोग करता है और भ्रष्टाचार, अनाचार, कामुकता, धन की असीम लालसा, मांसाहार और युद्ध के माध्यम से प्राणियों का संहार करता है, तो वह सृष्टि के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ देता है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, पहाड़ों का दोहन समुद्रों और भूगर्भिक असंतुलन से प्राकृतिक संपदा का नाश कर देता है। इस विनाशकारी गतिविधियों के परिणामस्वरूप सृष्टि के स्वाभाविक नियम गड़बड़ा जाते हैं, और परिणामस्वरूप प्राणी विविध प्रकार के कष्टों का सामना करने को विवश हो जाते हैं।

सृष्टि के इन नियमों की रक्षा और पुनर्स्थापन के लिए, नियामक शक्ति (ईश्वर) अत्याचारी और भ्रष्ट प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार पशु या वृक्ष की योनियों में भेजता है। वहां वे अपने दुष्कर्मों का फल भोगते हैं और जिनके प्रति उन्होंने अन्याप किया था, उनकी सेवा के माध्यम से अपने ऋण को चुकाते हैं। जैसे पशु-पक्षी, मनुष्य की सेवा करते हैं-उनके लिए भोजन, दूध, और अन्य आवश्यकताएँ प्रदान करते हैं-वैसे ही वृक्ष भी फल, फूल, अन्न, औषधि, और वर्षा जैसे अनमोल साधनों के माध्यम से न केवल मनुष्य की, बल्कि पशु-पक्षियों की भी सेवा करते हैं। यह चक्र इस सिद्धांत पर आधारित है कि निम्न योनियों के प्राणी उच्च योनियों की सेवा करके अपने कर्मों का प्रायश्चित करते हैं और ऋण से मुक्त होते हैं।

जो मनुष्य अपनी बुद्धि का सदुपयोग करने में असफल रहे, जो केवल भोग और विलास में लिप्त रहे, उनकी बुद्धि का प्राकृतिक स्थान (सिर आकाश की ओर) है हटा दिया गया और उनका सिर धरती की ओर झुका दिया गया, प्रतीकात्मक रूप से दर्शाते हुए कि उनकी ज्ञानेंद्रियाँ छीन ली गई हैं। यद्यपि उन्हें बुद्धि और ज्ञान मिल था, उन्होंने उसका दुरुपयोग किया, और परिणामस्वरूप उन्हें पशु बना दिया गया। पशुओं की बुद्धि सीमित होती है, इसलिए उनका सिर क्षितिज की ओर आड़ा कर दिया गया, जबकि मनुष्य का सिर आकाश की ओर इसीलिए रहता है क्योंकि उसका संबंध ज्ञान और बुद्धि से होता है। और जिन मनुष्यों ने अहंकार और प्रमाद के साथ जानबूझकर दुष्कर्म किए, उनकी न केवल ज्ञानेंद्रियाँ बल्कि कर्मेंद्रियाँ भछीन ली गईं। ऐसे प्राणी वृक्ष बन जाते हैं- अचल, स्थिर, और ज्ञानहीन। वृक्ष अपने स्थान से हिल नहीं सकते, न ही उन्हें किसी तरह का बोध होता है। यह स्थिति उन लोगों की होती है, जिन्होंने अपने मनुष्य जन्म का अत्यधिक दुरुपयोग किया।

इस प्रकार, जो सतोगुणी कर्म करते हैं, वे ऊपर की ओर बढ़ते हैं- मोक्ष प्राप्त करते हैं या उच्चतर मानव योनियों में जन्म लेते हैं। रजोगुणी कर्म करने वाले मध्य की ओर जाते हैं, जबकि तमोगुणी कर्म करने वाले नीचे की ओर गिरते हैं और वृक्ष या अन्य निस योनियों में जन्म लेते हैं। यह कर्मों के आधार पर जन्म-मरण का अनवरत चक्र है, जिसमें प्राणी विभिन्न योनियों में आते-जाते रहते हैं।

ईश्वर ने विभिन्न योनियों की रचना क्यों की ?

प्रकृति ने प्राणी वर्ग को चार प्रकारों में विभाजित किया है- जरायुज (माता के गर्भसे उत्पन्न), उद्भिज (अंकुरित होकर पैदा हुए), अंडज (अंडे से उत्पन्न), और स्वेदज (पसीने अथवा केमिकल रिएक्शन से उत्पन्न)। इन जीवों के शरीरों का निर्माण उनके कर्मों के आधार पर होता है।

जीवों की योनियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है: भोग योनि और कर्म योनि। मनुष्य की योनि को कर्म योनि कहा जाता है, जबकि पशु, पक्षी, कीट, और पेड़-पौधों की योनि भोग योनि कहलाती है। मनुष्य शरीर में, व्यक्ति न केवल अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगता है, बल्कि वह नए कर्म भी कर सकता है। इसके विपरीत, भोग योनि में केवल पूर्व जन्म के कर्मों का फल ही भोगा जाता है, वहां नये कर्म का संचय करने की क्षमता नहीं होती, क्योंकि बुद्धि का अभाव होता है।

मनुष्य के पास विवेक तथा बुद्धि होती है, जिससे वह अच्छे या बुरे कर्म कर सकता है। परंतु पशु, पक्षी, पेड़-पौधों में यह क्षमता नहीं होती, इसलिए वे केवल अपने पूर्व कर्मों का फल भोगते हैं। यदि मनुष्य अधर्म के कर्म करता है, तो उसे भविष्य में भोग योनि में जाकर उन कर्मों का फल भोगना पड़ता है।

ज्ञान के साथ किए हुए कर्म से उत्तम गति प्राप्त होती है।

अज्ञानता के साथ किए हुए कर्म मध्यम गति की ओर ले जाते हैं।

जानबूझकर अधर्म का कर्म करने से अधम गति प्राप्त होती है।

आत्मा की योनियों का निर्धारण उसके कर्मों के आधार पर होता है:

जब पाप कम और पुण्य अधिक होते हैं, तो व्यक्ति को उत्तम मनुष्य शरीर प्राप्त होता है।

पाप और पुण्य के बराबर होने पर अधम मनुष्य शरीर मिलता है।

यदि पाप पुण्य से अधिक होते हैं, तो पशु-पक्षी का शरीर मिलता है।5

जब पाप बहुत अधिक होते हैं, तो आत्मा पेड-पौधों का शरीर धारण करती है।

मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र होता है, लेकिन उसे अपने कर्मों का फल भोगने के लिए परतंत्र रहना पड़ता है।

मृत्यु के बाद आत्मा की यात्राः नए शरीर में प्रवेश

जब शरीर की मृत्यु होती है, तो उदान वायु शरीर से निकलती है, और शरीर ठंडा जाता है। उस समय, जीवात्मा इंद्रियों के सूक्ष्म तत्वों को साथ लेकर उदान वायु के साथ दूसरे लोक में चला जाता है। आत्मा की गति उसके अंतिम संकल्प (कर्म) के आधार पर होती है। मृत्यु के समय आत्मा जिस संकल्प को धारण करती है, उसी के अनुसार वह आगे का जीवन पाती है।

आत्मा पहले सोम (चंद्रमा) में स्थित होती है।

वहां से मेघ (बादल) में प्रवेश करती है।

मेघ से वृष्टि जल (वर्षा) में, और वर्षा से अन्न (फसल) में प्रवेश करती है।

अंततः, अन्न से रज, वीर्य (शुक्र) के माध्यम से गर्भ में प्रवेश करती है।

इस पूरी प्रक्रिया में परमात्मा जीवात्मा को उसकी संकल्पों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में ले जाता है। इस प्रकार जीवात्मा प्राण, मन, इंद्रियों और अन्य सूक्ष्म तत्व सहित एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित होता रहता है।

निष्कर्षः वेद, उपनिषद और भगवद गीता सभी इस बात पर सहमति जताते हैं कि कर्म ही पुनर्जन्म का मुख्य कारण है। व्यक्ति जो भी कर्म करता है, उसका प्रतिफल उसे अवश्य भोगना पड़ता है, और उसके कर्म ही यह निर्धारित करते हैं कि उसका अगला जन्म कैसा होगा। पुण्य कर्म उसे उच्चतर योनियों और लोकों में जन्म दिलाते हैं, जबकि पाप कर्म उसे निम्नतर योनियों में धकेलते हैं। शास्त्रों के अनुसार, जन्म मरण के इस चक्र से मुक्ति पाने का एकमात्र तरीका मोक्ष है, जिसे निष्काम कर्म और व योग के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

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