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कर्म एवं कर्म फल सिद्धांत

' कर्म' संस्कृत शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है 'क्रिया' या 'कार्य'। भारतीय दर्शन और विशेषकर वेदों, उपनिषदों, और भगवद ...


'कर्म' संस्कृत शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है 'क्रिया' या 'कार्य'। भारतीय दर्शन और विशेषकर वेदों, उपनिषदों, और भगवद गीता में, 'कर्म' केवल एक शारीरिक क्रिया ही नहीं है, बल्कि वह संपूर्ण मानसिक, वाचिक (वाणी द्वारा) और शारीरिक गतिविधियों को समाहित करता है। कर्म का सिद्धांत इस पर आधारित है कि व्यक्ति के कर्म उसके वर्तमान और भविष्य को निर्धारित करते हैं। किसी भी व्यक्ति द्वारा किए गए कार्यों का प्रभाव उसके वर्तमान जीवन और पुनर्जन्म पर पड़ता है।

मुख्य प्रकार के कर्म:

1. संचित कर्म : ये वे कर्म हैं जो पिछले जन्मों से एकत्रित होते आए हैं और जो वर्तमान जीवन में परिणाम के रूप में सामने आते हैं।

2. प्रारब्ध कर्मः यह वह कर्म है जिसका परिणाम वर्तमान जीवन में ही भोगा जाता है। इसे हम अपने वर्तमान जीवन की नियति या प्रारब्ध मान सकते हैं।

3. क्रियामाण कर्म (कृत कर्म): ये वे कर्म हैं जो हम वर्तमान जीवन में करते हैं और जो भविष्य में परिणाम देंगे। ये कर्म हमारे अगले जीवन या पुनर्जन्म में फलित होंगे।

कर्म फल सिद्धांत

कर्म फल सिद्धांत का मूल विचार यह है कि प्रत्येक क्रिया (कर्म) का परिणाम (फल) निश्चित रूप से मिलता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। जैसे हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, वैसे ही हर कर्म का फल भी होता है। व्यक्ति जो भी अच्छे या बुरे कर्म करता है, उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है, भोगे बिना कर्म के फल से मुक्ति संभव नहीं

इस सिद्धांत के अनुसारः

 सकारात्मक कर्म (पुण्य कर्म): यदि कोई व्यक्ति अपने कर्मों से दूसरों को लाभ पहुंचाता है, सृष्टि के नियमों का पालन करता है, और धर्म का आचरण करता है, तो उसे अच्छे फल प्राप्त होते हैं।

नकारात्मक कर्म (पाप कर्म): यदि कोई अपने कर्मों से दूसरों को कष्ट  पहुंचाता है, नियमों का उल्लंघन करता है या गलत कार्य करता है, तो उसे बुरे परिणाम भोगने पड़ते हैं।

कर्म और उसके फल का यह सिद्धांत जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है-वर्तमान जीवन से लेकर पुनर्जन्म तक।

वेदों के अनुसार कर्म

बेदों में कर्म का विशेष महत्व है। वेदों के अनुसार, हर व्यक्ति का धर्म उसके कर्म पर आधारित होता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में विभिन्न प्रकार के यज्ञों और कर्मकांडों क उल्लेख किया गया है, जिनके माध्यम से व्यक्ति देवताओं को प्रसन्न कर सकता है और सुखमय जीवन जी सकता है। वेदों में कर्म को तीन श्रेणियों में विभाजित किय गया है:

1. नित्य कर्म: ये वे दैनिक कर्तव्य हैं जिन्हें करना आवश्यक है, जैसे प्रातःकात स्नान, संध्या वंदन, हवन आदि।

2. नैमित्तिक कर्म: ये वे कर्म हैं जो विशेष अवसरों पर किए जाते हैं, जैसे विवाह, श्राद्ध आदि।

3. काम्य कर्म: ये वे कर्म हैं जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए करत छ है, जैसे धन की प्राप्ति, संतान प्राप्ति आदि के लिए किए गए यज्ञ और हवन

ऋग्वेद कहता है:

"कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" (ऋग्वेद 9.63.5)

अर्थात, "कर्म करते हुए पूरे संसार को श्रेष्ठ (आर्य) बनाओ।"

यह मंत्र कर्म की शक्ति और उसकी सार्वभौमिकता को इंगित करता है, जो समाज और संसार की उन्नति के लिए आवश्यक है।

वेदों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने कर्म को सही प्रकार से करता है, वह जीवन में सुख और समृद्धि प्राप्त करता है। परंतु इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि कर्मों के परिणाम व्यक्ति के जीवन और पुनर्जन्म को भी निर्धारित करते हैं।

उपनिषदों के अनुसार कर्म

उपनिषदों में कर्म के सिद्धांत को और अधिक गहराई से समझाया गया है। उपनिषदों में कर्म को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा गया है। कर्म की प्रक्रिया को जीवन-मरण और पुनर्जन्म के चक्र से जोड़ा गया है। उपनिषदों के अनुसार, आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में तब तक फंसी रहती है जब तक वह अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो जाती। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि आत्मा मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती।

उपनिषदों में कहा गया है कि कर्म, बंधन और मोक्ष दोनों का कारण बन सकते हैं। जो व्यक्ति अज्ञानता के कारण कर्म करता है, वह इस संसार में बंध जाता है। जबकि जो व्यक्ति ज्ञानपूर्वक कर्म करता है, वह मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। इसलिए, उपनिषदों में ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) और निष्काम कर्म (फल की इच्छा के बिना किया गया कर्म) को अत्यधिक महत्व दिया गया है।

बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है:

"स यथाकर्म यथाश्रुतं ततो भवति" (4.4.5)

अर्थात, "व्यक्ति अपने कर्मों और ज्ञान के अनुसार ही अगले जन्म में वैसा ही होता है।" इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कर्म के सिद्धांत को दर्शाया गया है, जो व्यक्ति के पुनर्जन्म को निर्धारित करता है।

छांदोग्य उपनिषद में भी कर्म फल का उल्लेख है:

"तं यथा यथा उपासते तदेव भवति" (3.14.1)

अर्थात, "जैसा व्यक्ति कर्म करता है, वैसा ही वह बनता है।"44

कर्म की तीन प्रकृतिः

1. सात्विक कर्म जो कर्म बिना किसी स्वार्थ के केवल कर्तव्य भाव से कि जाते हैं और जिनसे किसी को कष्ट नहीं होता।

2. राजसिक कर्म: जो कर्म फल की इच्छा से किए जाते हैं और जिनमें स्वाध भावना निहित होती है।

3. तामसिक कर्म: जो कर्म अज्ञानता और आलस्य के कारण किए जाते हैं जिनसे दूसरों को कष्ट होता है।

निष्काम कर्म

भगवद गीता में निष्काम कर्म का सिद्धांत प्रमुख रूप से अध्याय 2, श्लोक 47 वर्णित है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्माणि॥

अर्थ: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलि कर्मफल की इच्छा से प्रेरित होकर कर्म मत करो, और न ही कर्म न करने में तुम्हा आसक्ति होनी चाहिए।

यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का मूल सिद्धांत प्रस्तुत करता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है परंतु उसे उस कर्म के फल पर अधिकार नहीं है। इसका अर्थ यहां है कि हम ज भी कर्म करें पूर्ण निष्ठा एवं निःस्वार्थ भाव के साथ करें, परंतु उसका परिणाम हम नियंत्रण में नहीं होते। इस श्लोक के तीन प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

1. कर्म पर अधिकारः मनुष्य का कर्म पर पूर्ण नियंत्रण होता है मनुष्य क करने के लिए स्वतंत्र है इसलिए उसका चुनाव हमें सोच विचार, चिंत मनन पूर्वक करनी चाहिए। कर्तव्य का पालन हमारा नैतिक अ आध्यात्मिक उत्तरदायित्व भी है।फल की चिंता मत करोः कर्म करने के पश्चात उसके परिणाम पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं। हम फल की अपेक्षा न करें, क्योंकि फल कई बाह कारकों पर निर्भर करता है जो हमारे नियंत्रण से बाहर हैं। इस तरह है तनाव, चिंता और मोह से बच सकते हैं।44

 अकर्मण्यता से बचो निष्काम कर्म का यह अर्थ नहीं है कि हमें निष्क्रिय हो जाना चाहिए। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म न करने की भी प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। हमें कर्म करते रहना चाहिए, लेकिन फल की चिंता किए बिना। कर्म न करना भी एक प्रकार की बुराई है, क्योंकि यह आलस्य और जीवन में नकारात्मकता को बढ़ावा देता है।

निष्काम कर्म की व्यावहारिक समझः

जब हम किसी कार्य में केवल परिणाम की लालसा रखते हैं, तो हम मानसिक तनाव, चिंता और मोह में फंस जाते हैं। इससे जीवन में दुख और असंतोष उत्पन्न होता है।

जैसे अगर हम किसी की सहायता कर रहे हैं तो इसलिए ना करें कि समय आने पर वह भी हमारी सहायता करेगा। हम इसलिए सहायता करें कि हम सहायता करने के योग्य है या कर सकते है, उससे कोई भी आशा न रखें। यदि हम निष्काम भाव से कर्म करते हैं, तो हमारे मन में शांति और संतुलन बना रहता है। कर्म करने की प्रक्रिया में आनंद लेना और उस कर्म को श्रेष्ठता से करना ही वास्तविक सफलता है। इसके साथ, हम अपने जीवन में सच्ची स्वतंत्रता का अनुभव कर सकते हैं।

इस प्रकार, निष्काम कर्म का सिद्धांत व्यक्ति को न केवल कर्तव्यनिष्ठ बनाता है, बल्कि उसे जीवन में स्थिरता और आत्म-संतोष की ओर भी ले जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं:

"योगः कर्मसु कौशलम्" (भगवद गीता 2.50) अर्थात, "कर्म में ही योग है।"

इस श्लोक में कर्म को योग का मार्ग बताया गया है, जिसका पालन करना ही मोक्ष की ओर ले जाता है।

भगवद गीता में कर्म का एक और महत्वपूर्ण सिद्धांत है:

"तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च" (भगवद गीता 8.7) यानि, "सभी लोकों में परमात्मा का स्मरण करो और अपने कर्म (युद्ध) का पालन करो।"

यह श्लोक यह बताता है कि मनुष्य को हर स्थिति में अपने धर्म और कर्म का पालन करना चाहिए, चाहे स्थिति कैसी भी हो। कर्म का पालन करना ही धर्म है। उसे अपनेकर्तव्यों से पीछे नहीं हटना चाहिए। साथ ही, किसी भी कर्म को धर्म के अनुरूप ओ समाज के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए।

निष्कर्षः कर्म और कर्मफल सिद्धांत वेदों, उपनिषदों और भगवद गीता के आधार पर यह स्पष्ट है कि कर्म ही जीवन का आधार है। कर्म से न केवल व्यक्ति का वर्तमान जीवन प्रभावित होता है, बल्कि उसका भविष्य और पुनर्जन्म भी निर्धारित होता है। अतः यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने कर्मों को सही दिशा में ले जाए, ताकि का जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति कर सके। निष्काम कर्म, छ और ज्ञान का पालन ही मोक्ष का मार्ग है, जैसा कि वेदों, उपनिषदों और भगवद गीत में बताया गया है। 

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