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हर गृहस्थ को यह पञ्च यज्ञ अवश्य करना होगा वरना नही मिलेगी मुक्ति

सनातन परंपरा में पंच महायज्ञ का अत्यधिक महत्व है। यह पांच यज्ञ मानव जीवन को पूर्णता और संतुलन प्रदान करने के लिए प्रतिदिन किए जाने वाले अनुष...


सनातन परंपरा में पंच महायज्ञ का अत्यधिक महत्व है। यह पांच यज्ञ मानव जीवन को पूर्णता और संतुलन प्रदान करने के लिए प्रतिदिन किए जाने वाले अनुष्ठान हैं। वैदिक सनातन धर्म के अनुसार, मनुष्य को समाज, प्रकृति, पूर्वजों और सभी जीवों के प्रति कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। ये यज्ञ इस संतुलन को बनाए रखने का माध्यम हैं और इनका उद्देश्य व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण है।

5 महायज्ञ निम्नलिखित है:

1. ब्रह्म यज्ञ (वेदाध्ययन और ज्ञान का आदान-प्रदान)

2. देव यज्ञ (हवन, अग्निहोत्र)

3. पित् यज्ञ (जीवित माता-पिता एवं गुरु की सेवा)

4. बलिवैश्यदेवयज्ञ यज्ञ (सभी जीवों की सेवा)

5. अतिथि यज्ञ (साधु, सन्यासी, ब्रह्मचारी, ऋषियों का सत्कार)

1. ब्रह्म यज्ञ (वेदाध्ययन और ज्ञान का आदान-प्रदान)

ब्रह्म यज्ञ का तात्पर्य है वेदों का अध्ययन और ज्ञान का आदान-प्रदान करना। यह यज्ञ सभी शास्त्रों के प्रति श्रद्धा, अध्ययन और स्वाध्याय के माध्यम से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति का साधन है। ब्रह्म यज्ञ से व्यक्ति अपनी आत्मा की शुद्धि करता है और वेदों के माध्यम • से समाज में ज्ञान का प्रसार करता है।

श्लोकः

"स्वाध्यायोऽ ध्येतव्यो ब्रह्मयज्ञस्तु तु कर्मणि।" (तैत्तिरीय उपनिषद 1.9.1) अर्थः स्वाध्याय और वेदाध्ययन ब्रह्म यज्ञ का महत्वपूर्ण कर्तव्य है।

यह यज्ञ यह सिखाता है कि ज्ञान का प्रचार और स्वाध्याय एक मनुष्य के लिए सर्वोच्च * धर्म है। हमें नित्य प्रतिदिन वैदिक शास्त्रों का अध्ययन एवं स्वाध्याय करनी चाहिए - एवं उसका प्रचार प्रसार समाज के मध्य में करना ही ब्रम्ह यज्ञ का उद्देश्य है।

2. देव यज्ञ (देवताओं की पूजा)

देव यज्ञ का तात्पर्य है 33 कोटी देवताओं की पऔर उन्हें प्रसन्न करना। यह यज्ञ अग्निहोत्र और हवन के माध्यम से देव अर्पित करने के लिए कियाजाता है। देव यज्ञ का उद्देश्य प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं का आशीर्वाद प करना है. जिससे समाज और संसार में संतुलन बना रहे। अग्रिहोत्र इस यज्ञ का अंग है।

उपासना करनी चाहिए।  सूर्य देव की उपासना से  अर्थ, अग्निहोत्र में में आहुति देनी चाहिए और सूर्य यश से वायु, जल और अग्नि तत्व की शुद्धि होती है, है. जो पर्यावरण संतुलन में सहायक है। इसलिए प्रतिदिन संध्या वेला में हमें यज्ञ/अग्निहोत्र घर में करनी चाहिए।

3. पितृ यज्ञ (जीवित माता-पिता एवं गुरु की सेवा)

जीवित माता-पिता एवं गुरुजनों का श्रद्धापूर्वक सेवा करना, आदर, सत्कार करना है। आद्ध है। उन्हें अन्न, जल, भोजन एवं आज्ञा पालन से उन्हें तृप्त करना ही तर्पण है।


श्लोकःकुयाद्दहरहः श्राद्धमनाहेनोदकेन वा।पयोमूलफलैर्वाऽपि पितृभ्यः प्रीतिमावहन् ॥ (मनुस्मृति 3.82)

इस श्लोक में पित् यज्ञ का विधान वर्णित है, जिसमें पितरों को अन्न, जल, दूध, फत आदि भोज्य पदार्थों से श्रद्धापूर्वक तर्पण करने का निर्देश दिया गया है। इसमें बताण गया है किः

गृहस्थ व्यक्ति को अपने माता-पिता, पितामह, और पूर्वजों का अन्न, जल  दूध, और फल जैसे पदार्थों से तर्पण करना चाहिए।

पितरों के प्रति प्रेमपूर्वक सेवा और आदर भाव रखना आवश्यक है।

प्रतिदिन पितृ यज्ञ के रूप में श्रद्धा और प्रेम पूर्वक तर्पण, भोजन दान, और सेवा करनी चाहिए।

यह श्लोक पितृ यज्ञ के महत्व को दर्शाता है, जिसमें जीवित पितरों का तर्पण और उनका सम्मान करना धर्म के मुख्य अंगों में से एक है। परंतु आजकल जो माता-पिता की मृत्यु के पश्चात उनका श्राद्ध और तर्पण किया जाता है वह वैदिक परंपरा और संस्कृति के विरुद्ध है केवल जीवित माता-पिता और गुरुजनों का श्राद्ध और तर्पण संभव है मृत का नहीं।

4. बलिवैश्यदेवयज्ञ यश (सभी जीवों की सेवा)

इसे भूत यज्ञ भी कहा जाता है इसका तात्पर्य है सभी जीवों और प्रकृति की सेवा करना। इसमें पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों और सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा का भाव रखा जाता है। यह यज्ञ व्यक्ति को पृथ्वी पर रहने वाले हर प्राणी के प्रति दायित्व का बोध करवाता है।

वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्योऽग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्यः कुयाद्वितायश्च ब्राह्मणे होममन्नवहम् ॥ (मनुस्मृति 3.84)

इस यज्ञ के माध्यम से प्रत्येक गृहस्थ को अपने द्वारा पकाए गए भोजन में से एक भाग कल पशु-पक्षियों के लिए निकालनी चाहिए। क्योंकि प्रत्येक जीव महत्वपूर्ण है इसलिए उनका भरण पोषण का दायित्व भी हमारे ऊपर है इसलिए सभी जीवित प्राणियों के प्रति करुणा और सम्मान का भाव रखना चाहिए। यह यज्ञ पर्यावरण संतुलन और प्राणियों के कल्याण के लिए आवश्यक है।

5. अतिथि यज्ञ (साधु, सन्यासी, ब्रह्मचारी, ऋषियों का सत्कार)

अतिथि सत्कार और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना। वैदिक संस्कृति में अतिथि (साधु, सन्यासी, ब्रह्मचारी, ऋषियों का सत्कार) को देवता के समान माना गया है। अतिथि का सम्मान और उसकी सेवा को महत्वपूर्ण कर्तव्य माना गया है। घर में आए हुए अतिथि से अपनी जिज्ञासा एवं समस्याओं का समाधान प्राप्त करना एवं आत्मोन्नति के लिए तत्पर रहना ही इस यज्ञ का महान उद्देश्य है। परंतु ध्यान रहे सगे संबंधी, मित्र, सखा आदि अतिथि नहीं है। जिसकी कोई तिथि निर्धारित ना हो उसे अतिथि कहा जाता है इसलिए संत, महात्मा, ब्रह्मचारी, गुरु ही अतिथि कहलाने के योग्य है अन्य नहीं।

अतिथिर्देवो भव ।" (तैत्तिरीय उपनिषद 1.11.2)

अर्थः अतिथि को देवता के समान मानो।

अतिथि यज्ञ में अतिथि का आदर, सत्कार और सेवा का महत्व बताया गया है। इससे समाज में सहयोग और सद्भाव का विकास होता है।

निष्कर्ष पंच महायज्ञ मनुष्य के पांच महत्वपूर्ण दैनिक कर्तव्य रूपी कर्म हैं, जिनके माध्यम से वह समाज, प्रकृति, देवता, पूर्वज, और सभी जीवों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है। यह यज्ञ व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ समाज और पर्यावरण की भी रक्षा करते हैं। इन पांच यज्ञों के पालन से व्यक्ति न केवल आत्मिक शांति पान करता है, बल्कि समस्त जगत का भी कल्याण करता है

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