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33 कोटि देवता केवल सनातन संस्कृति के नहीं हैं, बल्कि ये संपूर्ण सृष्टि के देवता हैं

33 कोटि देवताओं की अवधारणा को लेकर सनातनी समाज में एक महत्वपूर्ण भनि है. जिसे समझने की आवश्यकता है। 33 कोटि का अर्थ प्रायः 33 करोड देवताओहे ...


33 कोटि देवताओं की अवधारणा को लेकर सनातनी समाज में एक महत्वपूर्ण भनि है. जिसे समझने की आवश्यकता है। 33 कोटि का अर्थ प्रायः 33 करोड देवताओहे रूप में समझा जाता है, जो कि एक गलत अवधारणा है। इसे समझने के। के लिए हमे "कोटि" और "देवता" शब्दों का सही अर्थ जानना होगा, जिससे हम इस। सकें और इसे सही तरीके से समझ सकें।

 कोटि का अर्थ:"कोटि" संस्कृत का एक बहुअर्थी शब्द है, जिसका अर्थ अलग-अलग संदर्भों में होता है। इसका एक अर्थ "प्रकार" (Category) और दूसरा अर्थ "करोड़" (Cure है। परंतु 33 कोटि देवताओं के संदर्भ में "कोटि" का सही अर्थ "प्रकार" है, न कि करोड़। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि सनातन धर्म में 33 करोड़ देवता नहीं बल्कि 33 प्रकार के देवता होते हैं।

देवता का अर्थः

महर्षि यास्क के निरुक्त (7/15) अनुसार 'देव' शब्द के कई गहन अर्थ है, जो इसके व्यापक और गूढ़ महत्व को दशति हैं।

"देवो दानाद वा, दीपनाद वा, द्योतनाद वा, द्युस्थानो भवतीति वा"

1. देव का प्रमुख लक्षण है 'दान', जिसका अर्थ है देना। जो व्यक्ति अपने सर्वश्रेष्ठ, प्रियतम वस्तु या यहां तक कि अपने प्राण भी सबके कल्याण के लिए समर्पित कर देता है, उसे 'देव' कहा जाता है।207 2. ठेव का दूसरा गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना। सूर्य, चंद्रमा और अग्नि अपने प्रकाश से जगत को आलोकित करते हैं. इसी कारण इन्हें 'देव' की संज्ञा दी जाती है।

 देव का कर्म है 'द्योतन', जिसका तात्पर्य है सत्य का प्रचार-प्रसार करना। जो मनुष्य सत्य को पहचानता है, उसे मानता है, उसे बोलता है और उसे अपने कर्मों में उतारता है, वह भी देव कहलाता है।

 देव की एक और विशेषता है 'ट्युस्थान', अर्थात उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित होना। ब्रह्मांड में सूर्य अपने उच्च स्थान के कारण 'देव' है, समाज में विद्वान अपने ज्ञान के कारण और राष्ट्र में राजा अपनी प्रतिष्ठा के कारण 'देव' कहलाते हैं।

इस प्रकार, 'देव' शब्द का उपयोग न केवल चेतन प्राणियों के लिए, बल्कि जड़ पदार्थों के लिए भी होता है, जो अपने गुण, कर्म और स्थान के आधार पर देवत्व को धारण करते हैं।

देवता का सार 'दान' में निहित है। जो भी अपनी क्षमता और सामर्थ्य के अनुसार दान करता है, वह देवता की श्रेणी में आता है। जैसे सूर्य अपनी किरणों का और अग्नि अपनी ऊष्मा का दान करती है, वैसे ही जो भी प्राणी या तत्व अपने से कुछ प्रदान करता है, वह देवता कहलाता है। दान की यह क्षमता ही देवता की महत्ता और सार्थकता का प्रतीक है।

33 कोटि देवताओं की श्रेणियां:

यस्य त्रयस्त्रिंशद् देवा अङ्गे गात्रा विभेजिरे।

तान् वै त्रयास्त्रिंशद् देवानेके ब्रह्मविदो विदुः। अथर्ववेद (10/7/27)

जिसके शरीर में 33 देवता अंग-प्रत्यंग के रूप में विभाजित हुए हैं, उसे ब्रह्म के ज्ञाता (ब्रहाविद) 33 देवताओं के रूप में जानते हैं।

इसका तात्पर्य यह है कि एक मनुष्य के शरीर में 33 प्रकार के देवता विभिन्न अंगों के रूप में उपस्थित होते हैं। इन देवताओं को वे ब्रह्मज्ञानी (ब्रह्म का वास्तविक ज्ञान रखने वाले) समझते और मानते हैं।इस मलोक से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में 33 देवता किसी बाहरी मूर्तिपूजा के रूप में नहीं बल्कि प्रकृति और शरीर के बाहरी एवं भीतरी शक्तियों और तत्वों के रूप में समझे जाते हैं।

33 कोटि देवताओं की श्रेणियों को चार प्रमुख भागों में बांटा गया है:

आठ (8) वसुः

वसु वे देवता है जो पृथ्वी और सष्टि के विभिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये हैं.

अग्नि, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, द्यौः

सृष्टि के सभी प्राणी जिनमें बसते हैं, उन्हें वसु कहा जाता है। 'वसु' का अर्थ है वह जो स्थिरता और सुरक्षा प्रदान करे।

वसुंधरा (पृथ्वी) स्थिरता का प्रतीक है, यह हमें आधार और पोषण देती है, इसलिए इसे वसु कहा जाता है।

वायु चंचलता और जीवनदायिनी प्राणवायु का दान करती है, जिससे वह भी वसु कहलाती है।

अंतरिक्ष स्थान प्रदान करता है, और इसलिए इसे वसु के रूप में जाना जाता है।

अग्नि ऊष्मा और ऊर्जा का दान करती है, जिससे जीवन चलता है, इसलिए इसे भी वसु माना जाता है।

आदित्य (सूर्य) प्रकाश का स्रोत है, जो सृष्टि को जीवंत करता है।

चंद्रमा अपनी सौम्यता और शीतलता से शांति और संतुलन का दान करता है।

नक्षत्र (तारे) सुरक्षा और मार्गदर्शन का प्रतीक होते हैं, जिससे वे भी वसु कहे जाते हैं।

द्यौः (आकाश या परलोक) हमें परलोक का सुख और आध्यात्मिक मार्ग का बोध कराता है।

ये अपनी अपनी भूमिकाओं के माध्यम से इस संसार को संतुलित, सुरक्षित और जीवंत बनाए रखते हैं और इसी कारण से ये सभी वसु देवता कहलाते हैं।

ग्यारह (11) रुद्रः

जीवात्मा, पाँच प्रापण और पाँच उप प्राण, ये ग्यारह जब शरीर को छोड़ते हैं तो लोग रो पड़ते है इस कारण ये रूद्र कहलाते हैं ये ग्यारह शरीर का आधार देव हैं।

1. पाँच प्राण-प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान

2. पाँच उप प्राण-नागकर्म, कृकल, देवदत्त, धनजंय, कूर्म

3. जीवात्मा

रुद्र शरीर के भीतर स्थित विभिन्न प्राण (जीवनशक्ति) और क्रियाओं के प्रतीक माने जाते हैं। रुद्रों का मुख्य कार्य शरीर और प्राणों के संतुलन को बनाए रखना है। जब ये रुद्र शरीर से बाहर निकलते हैं, तो शरीर मृत हो जाता है और शोक का कारण बनता है. इसलिए इन्हें "रुद्र" कहा जाता है, क्योंकि रुद्र का अर्थ है "रोने वाला" या "रुलाने वाला। आइए अब ग्यारह रुद्रों के कार्य और महत्व को विस्तार से समझते हैं:

1. प्राणः प्राण शरीर की मुख्य जीवन शक्ति है, जो श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करती है। यह शरीर में ऊर्जावान प्रवाह को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। प्राण के बिना जीवन असंभव है। यह रुद्र सांस लेने और छोड़ने के कार्य का प्रबंधन करता है और जीवन की ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत है।

2. अपान: अपान प्राण का वह रूप है जो शरीर से नीचे की ओर संचालित होता है। का यह मल और मूत्र के निष्कासन के लिए उत्तरदायी होता है। अपान रुद्र शरीर की शुद्धिकरण प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है और विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालता है।

3. व्यान: व्यान प्राण पूरे शरीर में प्रवाहित होने वाली ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है। यह रक्त परिसंचरण और संचार प्रणाली से जुड़ा हुआ है, जिससे शरीर के सभी अंगों तक ऊर्जा पहुंचती है। व्यान रुद्र का कार्य शरीर के सभी हिस्सों में ऊर्जा को संतुलित रूप से वितरित करना है।

4. समानः समान रुद्र भोजन के पाचन और पोषण तत्वों के अवशोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह आहार को ऊर्जा में बदलने और शरीर के विभिन्न हिस्सों में पोषण को वितरित करने का कार्य करता है। समान शरीर की पाचन किया संतुलित रखता है।

5. उदान: उदान प्राणशरीर के ऊर्ध्व (ऊपर की ओर) प्रवाह को नियंत्रित करतान यह आत्मा के शरीर से बाहर निकलने के समय भी महत्वपूर्ण होता है, विशेषकर शरीर में इन ग्यारह स के समय। उदान रुद्र का कार्य शरीर की ऊर्जावान गतिविधियों को नियंत्रित करन और मृत्यु के समय आत्मा के ऊपर उठने की प्रक्रिया में सहायता करना है।

6. नाग: नागकर्म रुद्र शरीर में छींकने और हिचकी जैसी गतिविधियों को नियि करता है। यह छोटे लेकिन महत्वपूर्ण शारीरिक क्रियाओं का प्रबंधन करता है, शरीर की सहज प्रतिक्रियाओं से संबंधित होते हैं।

7. कुकल: कुकल रुद्र शरीर में खांसी और आवाज के संचालन से संबंधित है। शरीर को श्वसन प्रणाली में कुछ अवरोध अनुभव होता है, तब कुकल रुद्र खांसी के माध्यम से उसे बाहर निकालता है और गले को साफ रखता है।

8. देवदत्त: देवदत्त रुद्र जंभाई (Yawning) के लिए उत्तरदायी है। यह शरीर में ऑक्सीजन प्राप्त करने की एक सहज क्रिया है, जब शरीर को थकावट अनुभव होने है या उसे अतिरिक्त श्वास की आवश्यकता होती है। जंभाई शरीर के शारीरिक ऊर्ज स्तर को बनाए रखने में सहायक होती है।

9. धनंजयः धनंजय रुद्र शरीर की विभिन्न ध्वनियों और ध्वनिमूलक गतिविधियों के नियंत्रित करता है। यह मृत्यु के बाद भी शरीर में बना रहता है और शरीर के नह होने तक काम करता रहता है। यह शरीर के अंगों और तंत्रों को जुड़े रहने में सहायत करता है और जीवन के अंतिम क्षणों तक शरीर के भीतर सक्रिय रहता है।

10. कूर्मः कूर्म रुद्र मुख्य रूप से श्वास और प्राणों के सही प्रवाह को बनाए रखने के लिए उत्तरदायी है। यह श्वास प्रणाली को नियंत्रित करता है और श्वास के धीमे, स्थिरऔर नियंत्रित प्रवाह में सहायता करता है। कूर्म रुद्र योग और ध्यान के अभ्यास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। योग की कुछ तकनीकें, विशेष रूप से प्राणायाम श्वास की स्थिरता और नियंत्रण पर आधारित होती हैं। कूर्म रुद्र इस समय व्यक्ति के श्वास को नियंत्रित करता है और ध्यान को गहरा बनाने में सहायता करता है। इसके परिणामस्वरूप मानसिक शांति और आध्यात्मिक जागरूकता प्राप्त होती है।

11. जीवात्माः जीवात्मा रुद्र आत्मा का प्रतीक है, जो शरीर का वास्तविक संचातर है। यह शरीर में प्राणों को नियंत्रित करता है और जीवन के संपूर्ण अस्तित्व के लिएउत्तरदायी होता है। जब जीवात्मा शरीर छोड़ता है, तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, और जीवन चक्र का अंत होता है।

शरीर में इन ग्यारह रुद्रों का महत्वपूर्ण योगदान है, जो शरीर की हर छोटी-बड़ी क्रिया को नियंत्रित करते हैं। जब ये रुद्र शरीर से बाहर निकलते हैं, तो शरीर की जीवनशक्ति समाप्त हो जाती है, जिससे मृत्यु होती है। इसलिए इन रुद्रों को "रुद्र" कहा गया है, क्योंकि इनके निकलने पर शोक और विलाप होता है।

बारह (12) आदित्यः

12 आदित्य सष्टि के 12 महीनों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं. चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष पौष, माघ तथा फाल्गुन ।

इनका संबंध समय और सृष्टि की आयु से है, क्योंकि यह पूरे वर्षभर के चक्र को धारण करते हैं। 'आदित्य' शब्द 'आयु' से उत्पन्न हुआ है, जो जीवनकाल या समय की धारण करने वाली शक्ति को दर्शाता है। आदित्य मुख्य रूप से सूर्य देव के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और इनका संबंध प्राकृतिक और मौसमीय चक्रों से भी है।

बारह आदित्यों के नाम निम्नलिखित हैं, जो सनातन धर्म के पंचांग के 12 महीनों से ये संबंधित हैं:

1. चैत्रः यह वर्ष का पहला महीना होता है और इसे वर्ष के आरंभ का प्रतीक माना जाता है।

2. वैशाखः यह महीना कृषि और उपज की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, और इसे समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

3. ज्येष्ठः इस महीने को सबसे लंबा महीना माना जाता है, क्योंकि इसमें सूर्य अपनी प्रखरता में होता है।

4. आषाढ़ः इस महीने में वर्षा ऋतु का प्रारंभ होता है, जो पृथ्वी को जीवनदायिनी जल से सिंचित करती है।

5. श्रावणः यह महीना वर्षा ऋतु का प्रमुख महीना होता है, जिसमें प्रकृति अपनी संपूर्णता में खिलती है।

6. भाद्रपदः इस महीने में वर्षा ऋतु का अंत होता है, और यह मौसम परिवर्तन का महीना माना जाता है।

 7. आश्विनः इस महीने को शरद ऋतु के के आरंभ के रूप में जाना जाता जिसमें मौसम साफ और सुखद हो जाता है।

8. कार्तिकः कार्तिक महीने को विशेष रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसे पवित्रता और प्रकाश का प्रतीक माना जाता है।

9. मार्गशीर्षः यह महीना ठंड का आरंभिक महीना होता है, जिसमें शीत ऋत अपने चरम पर होती है।

10. पौष: यह सबसे ठंडा महीना होता है और इसे ठंडी हवाओं और शांतिपूर्ण वातावरण का प्रतीक माना जाता है।

11. माघः यह ठंड का अंतिम महीना होता है, और इसके बाद बसंत ऋतु की प्रारंभ होता है।

12. फाल्गुनः यह महीना वसंत ऋतु का आगमन का प्रतीक होता है और आनंद और उत्सव का महीना माना जाता है। यह

इन बारह आदित्यों का संबंध सृष्टि के समयचक्र और ऋतु परिवर्तन से होता है। हर आदित्य का वर्ष के अलग-अलग महीने में अलग-अलग रूप में प्रभाव होता है, के सृष्टि के जीवनचक्र को संतुलित करता है। ये 12 आदित्य सृष्टि की आयु को धारणा करते हैं।

इंद्र (विद्युत):

इंद्र ऐश्वर्य और ऊर्जा के देवता हैं, जो इस इस सृष्टि को समृद्धि प्रदान करते हैं। हैं। विदयत को "देव" मानने का आधार उसके द्वारा प्रदान किए जाने वाले ऐश्वर्य, शक्ति और समृद्धि में निहित है। बृहदारण्यक उपनिषद (3/1/6) के अनुसार, इन्द्रदेव, जो ऐश्वर्य और शक्ति का प्रतीक हैं, को विद्युत के रूप में परिभाषित किया गया है। इस मंत्र में प्रश्न किया जाता है: "कतम इन्द्रः?" अर्थात्, इन्द्र (ऐश्वर्य का स्रोत) कौन है? इसका उत्तर दिया जाता है: "अशनिरिति", यानी विद्युत ही इन्द्रदेव है। विद्युत के माध्यम से हमें कई महत्वपूर्ण साधन प्राप्त होते हैं:

1. गतिः विद्युत का उपयोग मशीनों, वाहनों, और अन्य उपकरणों को चहाने के लिए होता है, जिससे गति प्राप्त होती है।

2. शक्तिः विदयुत ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जो आधुनिक जीवन के लिए आवश्यक है।

3  प्रकाशः विदयुत से हमें कृत्रिम प्रकाश मिलता है, जिससे रात के समय भी कार्य करना संभव हो पाता है।

4 समृद्धिः विद्युत के बिना उद्योग, तकनीकी विकास और अर्थव्यवस्था का रूरूप से संचालन संभव नहीं होता। विदयुत स सुचारू एक महत्वपूर्ण आधार है। समाज की समृद्धि का

5 सुखः आधुनिक युग में विद्युत के बिना जीवन की कल्पना करना मुश्किल है। यह हमारे दैनिक जीवन में सुविधा और आराम का स्रोत है, जैसे कि घरों में बिजली, गर्मी, और शीतलता का प्रबंधन ।

प्रकार, विद्युत को इन्द्र के रूप में देखा जाता है, क्योंकि यह ऐश्वर्य, शक्ति, और / उमृद्धि का साधन है।

प्रजापति/यज्ञः 

प्रजापति/यज्ञ और हवन के माध्यम से संपूर्ण सष्टि का कल्याण करने वाले देवता हैं। या को देवता के रूप में मान्यता दी जाती है क्योंकि यज्ञ से सष्टि का संतुलन बना रहता है और प्राणियों को सुख और समृद्धि प्राप्त होती है। भगवद गीता (3/14) में इस सबंध में स्पष्ट उल्लेख किया गया है:

अनाद भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । पज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद् भवः॥"

सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और उनके जीवन का आधार अन्न है।

अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य (वर्षा) से होती है।

वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ से होती है।

और यज्ञ कर्म (कर्तव्यों और गतिविधियों) से उत्पन्न होता है।

 यज्ञ का महत्वः

1. वर्षा का स्रोतः गीता के अनुसार, यज्ञ के माध्यम से पर्जन्य (वर्षा) की प्राप्ति होती है। वर्षा धरती पर अन्न उत्पन्न करने के लिए यावश्यक होती है। इस

प्रकार, यज्ञ प्राणियों के जीवन और पोषण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह का तात्पर्य केवल अग्नि में आहतियाँ देना नहीं है, बल्कि इसका व्यापक वह कर्म और कर्तव्य हैं जो सृष्टि के संतुलन को बनाए रखते हैं।

2. सुष्टि का संतुलनः यज्ञ सष्टि के संतुलन को बनाए रखने के लिए किया जाने वाला कर्म है। जब मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। हैं और समाज में सामंजस्य स्थापित रखते हैं, तब यज्ञ की भावना से सृष्टि को भी लाभ मिलता से न केवल भौतिक समृद्धि, बल्कि आध्यात्मिक समृद्धि है। इस संतुलन से प्राप्त होती है।

 समाज और प्रकृति का परस्पर संबंध: यह समाज और प्रकृति का परस्पर संबंध दर्शाता है। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य प्रकृति से जो कुछ प्राप्त करता है, उसे पुनः प्रकृति को लौटाता है, जिससे एक निरंतर चक्र चलता रहता है। यह चक्र वर्षा, अन्न, और जीवन को संचालित करता है।

यज्ञ न केवल धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह प्राणियों के जीवन और सुख का आधार है। यज्ञ के द्वारा वर्षा होती है, जिससे अन्न का उत्पादन होता है, और यह अन्न सभी जीवों के जीवन को पोषित करता है। इस प्रकार, यज्ञ को देवता कहा गया है, क्योंकि यह प्राणी मात्र के जीवन और समृद्धि का कारण है।

निष्कर्ष: यह 33 कोटि देवता केवल सनातन संस्कृति के नहीं हैं, बल्कि ये संपूर्ण सृष्टि

के देवता हैं। यह संसार इन्हीं तत्वों और शक्तियों पर आधारित है। इस प्रकार, सनातन

धर्म और वैदिक संस्कृति का यह महत्वपूर्ण सिद्धांत न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। इसे समझने के बाद हम अपनी संस्कृति के प्रति अधिक जागरूक हो सकते हैं और इसे दूसरों के सामने भी सही तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं।

 

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