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क्यों धर्म में शुद्ध सात्विक आहार पर बल दिया जाता है इससे मन और आत्मा की शुद्धता भी प्रभावित होती है

सनातन धर्म में आहार को केवल शरीर का पोषण देने वाले तत्व के रूप में नहीं. बल्कि इसे आध्यात्मिक और धार्मिक सिद्धांतों से भी जोड़ा था। उनके अनु...


सनातन धर्म में आहार को केवल शरीर का पोषण देने वाले तत्व के रूप में नहीं. बल्कि इसे आध्यात्मिक और धार्मिक सिद्धांतों से भी जोड़ा था। उनके अनुसार, आहार से न केवल शरीर की ऊर्जा प्राप्त होती है, बल्कि इससे मन और आत्मा की शुद्धता भी प्रभावित होती है। यही कारण है कि आहार को बहुत ही सोच-समझकर चुना जाना चाहिए, ताकि वह शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाए रखे और व्यक्ति के मोक्ष प्राप्ति में सहायक हो सके।

आहार के चार सिद्धांत

ऋषियों ने आहार को चुनने के चार प्रमुख सिद्धांत निर्धारित किए थे:

आहार से आयु, बल, रूप और बुद्धि की वृद्धि होनी चाहिए।

आहार प्राप्त करने में किसी अन्य प्राणी को कष्ट नहीं होना चाहिए।

आहार धर्मसम्मत और शुद्ध होना चाहिए।

आहार मोक्ष प्राप्ति में सहायक होना चाहिए।

आहार की महत्ता

सात्विक आहार वह होता है जो शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है, रोगों से मुक्त रखता है और मन को शांत रखता है। इसमें रस, पौष्टिकता और रुचिकरता होती है। वेदों में घी, दूध, अन्न, फल, साग-सब्जी और जल जैसे आहारों को सात्विक माना गया है, जो न केवल शरीर को स्वस्थ रखते हैं, बल्कि आध्यात्मिक साधना में भी सहायक होते हैं। ऐसे आहार से किसी जीव को कष्ट नहीं होता और यह आहार प्राकृतिक रूप से ही प्राप्त किया जा सकता है।

भगवद गीता के अध्याय 17 में भगवान श्रीकृष्ण ने आहार के तीन प्रकारों सात्विक, राजसिक और तामसिक का विस्तार से वर्णन किया है। हर प्रकार का आहार न केवल शरीर पर, बल्कि मन और आत्मा पर भी प्रभाव डालता है। यहाँ इन तीनों प्रकारों के आहार का विस्तार से वर्णन किया गया हैः

1. सात्विक आहार (शुद्ध और उन्नत आहार)

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥" (भगवद गीता अध्याय 17, स्लोक 8) 

अर्थ जो आहार आयु सत्व (शांति), बल, स्वास्थ्य, सुख और प्रसन्नता को बढ़ाता जो रसयुक्त, खिग्ध (मधुर), स्थिर और हृदय को प्रिय होता है, वह सात्विक आहार और सात्विक लोगों द्वारा पसंद किया जाता है।

विशेषताएँ:

सात्विक आहार शरीर और मन को शुद्ध और शांत रखता है।

 यह आयु और बल को बढ़ाता है, रोगों से बचाव करता है।

इसमें फल, सब्जियाँ, दूध, घी, अनाज, और जल जैसे प्राकृतिक पद सम्मिलित होते हैं।

यह आहार मानसिक शांति, आत्मिक शद्धि और आध्यात्मिक साधना लिए अत्यंत आवश्यक है।

इस प्रकार का भोजन पचने में हल्का और शारीरिक और मानसिक स्वास् के लिए लाभकारी होता है।

2. राजसिक आहार (उत्तेजना और तृष्णा बढ़ाने वाला आहार)

कट्टुम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।

आहारा राजसस्पेष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ (भगवद गीता, अध्याय 17, श्लोक १

अर्थः जो भोजन बहुत कड़वा, खट्टा, नमकीन, बहुत गर्म, तीखा, शुष्क और जन करने वाला हो, उसे राजसिक आहार कहा जाता है। यह आहार दुःख, चिंता और रो को उत्पन्न करने वाला होता है।

विशेषताएँ:

राजसिक आहार इच्छाओं और तृष्णा को बढ़ाता है।

यह भोजन मानसिक अशांति, क्रोध और अधीरता को जन्म देता है।

इसमें अत्यधिक मसालेदार, खट्टा, नमकीन, और तले-भुने पदार्थ शालिने होते हैं, जो शरीर को उत्तेजित करते हैं।

यह आहार शारीरिक ऊर्जा तो देता है, लेकिन मानसिक संतुलन को करता है और अंततः दुःख, शोक और रोगों का कारण बनता है।इसे भोगवादी और तीव्र इच्छाओं वाले लोग पसंद करते हैं, क्योंकि यह तुरंत राप्ति देता है, लेकिन लंबे समय में हानिकारक होता है।

तामसिक आहार (अवसाद और आलस्य को बढाने वाला आहार)

पामं गतरसे पूति पर्युषितं च यत्।

अरिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम ॥ (भगवद गीता, अध्याय 17, श्लोक 10)

अर्थ बासी, गले-सडे, दुर्गधित, मांसाहार, और अशुद्ध भोजन, जो स्वास्थ्य के लिए सानिकारक है, तामसिक लोगों को प्रिय होता है।

विशेषताएँ:

तामसिक आहार शरीर और मन दोनों को भारी और आलसी बना देता है।

इसमें बासी, गला-सड़ा, खराब, ज्यादा पकाया हुआ, मांसाहार और अशुद्ध भोजन शामिल है।

इस आहार से मन और शरीर में अवसाद, आलस्य, और अज्ञानता का जन्म होता है।

तामसिक आहार का सेवन आत्मिक विकास को अवरुद्ध करता है और मनुष्य को अधोगति की ओर ले जाता है।

ऐसे भोजन से व्यक्ति मानसिक रूप से थका हुआ, निराश और उत्तेजित हो जाता है।

भोजन केवल शरीर को ऊर्जा देने का साधन नहीं है, बल्कि यह मन और आत्मा पर भी गहरा प्रभाव डालता है। सात्विक आहार शरीर, मन और आत्मा को शुद्ध करता है और आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होता है। राजसिक आहार तृष्णा और इच्छाओं को बढ़ाता है, जो अंततः अशांति और दुःख का कारण बनते हैं। वहीं, तामसिक आहार व्यक्ति को आलस्य, अवसाद और अधर्म की ओर ले जाता है। इसलिए, हमें अपने आहार में सावधानी बरतनी चाहिए और सात्विक भोजन को प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि हम शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो सकें।

माँसाहार से होने वाले दुष्प्रभाव

1. हिंसा और पापः माँसाहार हिंसा पर आधारित होता है। इसमें एक जीव को उसकी जीवन शक्ति से वंचित करना पड़ता है, जिससे उस जीव को अपार पीडा होती है। जहाँ हिंसा होती है. वहाँ पाप उत्पन्न होता है और जहाँ होता है. वहाँ दुःख दरिद्रता और राग-द्वेष का वास होता है। किसी जीवको काट देकर स्वयं शांति और सुख की कामना करना स्वार्थ और अज्ञानता परिचायक है।

2. कर्म और पनर्जन्मः प्रत्येक जीव का पुनर्जन्म उसके कर्मों पर आधार होता है। यदि हम किसी अन्य जीव को दुःख और पीड़ा पहुँचाते हैं. तो पुनर्जन्म का फल भी वैसा ही भयानक एक होगा। इसलिए हमें ऐसे कर्मों के बचना चाहिए जो अन्य जीवों को कष्ट पहुँचाते हैं।

वृक्ष और दूधः अहिंसक स्रोत हैं कि फल खाने और दूध पीने से भी हिंसा होती है। लेकिन कुछ लोग तर्क देते हैं। के अनुसार, फल और दूध का सेवन अहिंसा का पालन करते हए किया जा सकত্র है। पेड अपने फल स्वाभाविक रूप से गिराते हैं, जिन्हें बिना किसी क्षति के ग्रह गाय की सेवा करके उसके अतिरिक्त दूध का उपयो किया जा सकता है। इसी तरह, गाय करना भी किसी प्रकार की हिंसा नहीं मानी जाती, क्योंकि इससे बछड़े आवश्यकताओं में कोई कमी नहीं होती।

तामसिक और राक्षसी आहार

मनुस्मृति में स्पष्ट किया गया है कि माँस और मद्य राक्षसी और पिशाच प्रवृत्ति के आहार हैं, जो वैदिक सभ्यता के अनुरूप नहीं हैं। मनुष्य का स्वाभाविक आहार फर अन्न और शाकाहार है। वेदों ने माँसाहार को हानिकारक बताया है, क्योंकि यह शरीर को रोगों का घर बना देता है और मानसिक शांति भंग करता है।

मनुष्य का स्वाभाविक आहार

शारीरिक संरचना के आधार पर, मनुष्य का प्राकृतिक आहार फलाहार है। उसने दाँत और आंतें इस प्रकार की बनी हैं कि वे फल और शाकाहार को आसानी से सके। मांसाहारी जीवों की तुलना में मनुष्य के दाँत और पाचन प्रणाली मांस खाने के लिए नहीं बनी हैं। यह दर्शाता है कि मनुष्य का मूल आहार फल और सब्जियों ही है जिन्हें छोड़कर उसने अपने प्राकृतिक स्वभाव को बिगाड़ लिया है।

प्राकृतिक आहार का महत्व

पका हुआ, भुना हुआ और कृत्रिम भोजन मनुष्य के लिए स्वाभाविक नहीं है। हमरे शरीर के स्वस्थ विकास के लिए प्राकृतिक आहार की आवश्यकता होती है, जो फल अनाजों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। फलाहार न केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के के लिए भी महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि सनातन धर्म में व्रत और धार्मिक अनुष्ठानों में फलाहार का विशेष महत्व है। কি

कुछ लोग तर्क देते हैं हैं कि चिकन, मटन, मछली और अन्य माँसाहार का उपयोग के भोजन के लिए ही है. और अगर हम इन्हें नहीं खाएँगे, तो इनकी संख्या बढ़ एगी। लेकिन इस प्रकार का तर्क बिल्कुल भी सही नहीं है। जब जन्म और मृत्यु कने मनुष्य के हाथ में ही नहीं हैं, तो इन जीवों को केवल आपके भोजन बनने के लिए किसने उत्पन्न किया? क्या ईश्वर ने ऐसा किया है? अगर हम ऐसा माने, तो ईश्वर को अधर्मी, स्वार्थी और पक्षपाती कहना पड़ेगा, जो कि पूरी तरह से गलत है।

ईश्वर तो दयालु, कल्याणकारी और प्रेममय हैं। वह सबके दुखों को हरने वाले हैं और प्रभाव सच्चिदानंद है, जिसमें राग, द्वेष, हिंसा, और अधर्म का कोई स्थान नहीं उनका स्वभाव है। तो यह सोचना कि ईश्वर ने इन जीवों को केवल मनुष्य के खाने के लिए बनाया है, यह तर्क नहीं बल्कि कुतर्क है। ऐसे विचार केवल एक स्वार्थी, पक्षपाती और अधर्मी व्यक्ति से ही संभव हैं, जो अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए कुतर्क का सहारा लेते हैं।

मनुष्य का स्वभाव और विचार उसके आचरण और संगति पर निर्भर करते हैं। जैसा वह दिन भर करता है, जैसे वातावरण में वह रहता है, वैसा ही उसका स्वभाव और सोच बन जाता है। यही कारण है कि कई बार व्यक्ति गलत चीज़ों को सही मानने लगता है।

इसलिए, केवल संगति बदलने से ही मनुष्य का उद्धार संभव है। हमें अपने विचारों को शुद्ध करने के लिए, आज से ही वैदिक शास्त्रों की संगति अपनानी चाहिए और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना चाहिए। इसी से इस संसार का कल्याण संभव है, क्योंकि सही विचार और शुद्ध संगति ही मनुष्य को सच्चाई की ओर ले जाते हैं।

निष्कर्षः वैदिक शास्त्रों में सात्विक आहार को सर्वोत्तम माना गया है। यह न केवल शरीर को स्वस्थ और मन को शांत रखता है, बल्कि आध्यात्मिक साधना और मोक्ष प्राप्ति में भी सहायक होता है। माँसाहार, जो हिंसा और पाप से भरा होता है, मनुष्य के स्वभाव और धर्म के विरुद्ध है। इसलिए, हमें अपने आहार में शुद्धता और अहिंसा को प्रमुखता देनी चाहिए और अपने जीवन को सच्चे अर्थों में उन्नत बनाने के लिए सात्विक और फलाहारी जीवनशैली अपनानी चाहिए। इस प्रकार, केवल आहार ही नहीं, बल्कि हमारी पूरी जीवनशैली को वैदिक सिद्धांतों के अनुरूप बनाना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। 

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