योग दर्शन के अनुसार, जाति, आयु और भोग प्राणियों को उनके पूर्व कर्मों के आधा पर प्राप्त होते हैं। न्याय दर्शन में महर्षि गौतम ने जाति की पर...
योग दर्शन के अनुसार, जाति, आयु और भोग प्राणियों को उनके पूर्व कर्मों के आधा पर प्राप्त होते हैं। न्याय दर्शन में महर्षि गौतम ने जाति की परिभाषा दी।
"समानप्रसवात्मिका जातिः ।।2.2.681। जिसका अर्थ है कि जिनका समान प्रहर (जन्म) होता है, वे सब एक जाति के होते हैं। जैसे गाय और बैल वंश वृद्धि के लिए एक दूसरे के सहयोगी होते हैं, इसलिए दोनों एक ही जाति के माने जाते हैं। दूसरे ओर, घोड़ी और कुत्ता अलग जाति के माने जाते हैं क्योंकि वे वंश वृद्धि में सहयोगे नहीं होते।
आयु और भोगः जाति की अन्य प्रमुख पहचान
जाति की पहचान का दूसरा तत्व आयु है। जिन प्राणियों का समान प्रसव होता है
उनकी आयु भी लगभग समान होती है। उदाहरण स्वरूप- गाय और बैल की समान होती है, जबकि घोड़ी और कुत्ते की आयु में अंतर होता है। तीसरी पहचान
भोग (आहार और जीवन शैली) है। समान प्रसव और आयु वाले प्राणियों का भोगर्भसमान होता है। जैसे, गाय और बैल दोनों घास खाते हैं, जबकि घोड़ी और कुत्ते का भोग भिन्न है-कुत्ता मांस खाता है, घोड़ी नहीं।
मनुष्यों की जातिः समानता का सिद्धांत
शास्त्रों के अनुसार, समस्त मानवजाति समान प्रसव, आयु और समान भोग की धारणा पर आधारित है. जिससे स्पष्ट होता है कि सभी मनुष्य मूल रूप से एक है जातीयता के हैं। वैदिक काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र की वर्ण व्यक् व्यक्ति के गुण, कर्म और योग्यता के आधार पर निर्धारित होती थी। परंतु आज पवित्र वर्ण व्यवस्था विकृत होकर जाति व्यवस्था में बदल गई है. जिसमें जना केआधार पर समाज को विभाजित किया जाता है। वैदिक वर्ण व्यवस्था का यह विकृत रूप अब समाज में भेदभाव और बंटवारे का माध्यम बन गया है. जबकि इसका 197 भूत उद्देश्य समाज में सामंजस्य और समरसता बनाए रखना था।
समाज में जातिवाद को बढ़ावा देने के पीछे स्वार्थी तत्वों का गहरा षड्यंत्र काम कर रहा है। दुर्भाग्यवश, हम शास्त्रों के अध्ययन से विमुख हो गए हैं और तर्क एवं विज्ञान भी उपेक्षा कर, केवल सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करने लगे हैं। इसी अज्ञानता का लाभ उठाकर कुछ लोगों ने वर्ण व्यवस्था का दुरुपयोग किया और सनातन समाज को जातियों में विभाजित कर दिया। समाज की एकता और शांति को पुनः स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि हम शास्त्रों का गहन अध्ययन करें जिससे सत्य का वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो सके और हम इस विभाजनकारी प्रवृत्ति को समाप्त कर सके। आज समाज में जात-पात का भेदभाव अज्ञानता के कारण व्याप्त है। जातीयता से उत्पन्न विभाजन ने ने समाज को अशांत और विखंडित कर दिया है। विभिन्न वर्गों की मध्य भेदभाव, राग-द्वेष और संघर्ष के कारण समाज टूट रहा है। यही कारण है कि सनातन समाज में एकता का अभाव है।
आर्य संस्कृतिः 'वसुधैव कुटुंबकम' का संदेश
प्राचीन आर्य संस्कृति "वसुधैव कुटुंबकम" की भावना पर आधारित थी, जिसमें समस्त मानवता को एक परिवार माना जाता था। प्राचीन वैदिक समाज में जातीयता का भेद नहीं था। वे केवल "आर्य" (अच्छे) और "अनार्य" (दस्यु या बुरे) के रूप में विभाजन करते थे। बुरे लोग भी शिक्षा और संस्कार से आर्य बन सकते थे, और आर्य भी यदि असंस्कारी रहे तो दस्यु बन सकते थे।
वैदिक संस्कृति जातिवाद की नकारात्मकता को भली-भांति समझती थी और यह मानती थी कि जातीयता अन्याय और अहंकार का जन्म देती है। जातिवाद के इस कुअन्यायपूर्ण तंत्र को समाप्त करने का सबसे उत्तम तरीका यह था कि सभी मनुष्य एक समान शासन के अधीन हों और समान जीवन शैली अपनाएं। समान विवाह संबंध, एक भाषा, और एक धर्म भी जातिवाद को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
वेदों में चक्रवर्ती राज्य की प्रार्थनाएं इसलिए की गई हैं, क्योंकि एक सार्वभौमिक राज्य की स्थापना से ही समाज में शांति और एकता का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। जब तक सभी लोग एक ही राजा के अधीन नहीं होंगे, तब तक समाज में अशांति बनी रहेगी। यही मार्ग राष्ट्र और समाज की प्रगति और कल्याण का स्रोत है।
निष्कर्षः जातिवाद का अंत और सामाजिक एकता का निर्माण वैदिक ही संभव है। यह शास्त्र हमें वसुधैव कुटुंबकम की भावना सिखाते हैं माध्यम से ही मानवता की एकता और शांति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। जब तक कि राह की एक भाषा एक धर्म और एक उद्देश्य नहीं होगा, तब तक वह राष्ट्र की भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। एकता के इन स्तंभों के बिना किसी देश की और स्थिरता अधूरी रहती है।
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