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वर्ण व्यवस्था प्राचीन वैदिक काल से जुडी मानी जाती है और सनातन धर्म के शास्त्रों में इसका उल्लेख मिलता है

वर्ण  व्यवस्था भारतीय समाज में चार मुख्य वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की विभाजन की प्राचीन सामाजिक संरचना है। यह व्यवस्था प्राच...


वर्ण  व्यवस्था भारतीय समाज में चार मुख्य वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की विभाजन की प्राचीन सामाजिक संरचना है। यह व्यवस्था प्राचीन वैदिक काल से जुडी मानी जाती है और सनातन धर्म के शास्त्रों में इसका उल्लेख मिलता है। इसका उद्देश्य समाज में विभिन्न कार्यों और जिम्मेदारियों को विभाजित करना था ताकि समाज संगठित और सुव्यवस्थित रहे।

संसार की सुरक्षा व्यवस्था एवं समृद्धि के लिए उस परमात्मा ने मुख्य, बाहू, जांग और > पैरों के गुणों की तुलना से निर्मित वर्णों का अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का पृथक पृथक कर्म, वेदों से निर्धारित किया। अतः वर्ण व्यवस्था का विधान वेदों में किया गया है जो कि ईश्वर प्रदत है और यह कर्म के अनुसार निर्धारित किया जाता है ना कि जन्म के अनुसार।

प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग-अलग स्वभाव और रुचि होता है और उसी के अनुसार वह कर्म को करता है एवं धारण करता है, वैदिक वर्ण व्यवस्था इसी आधार पर बनाया गया था कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी रुचि, स्वभाव, योग्यता और गुणों के अनुसार वर्ण को निर्धारित करने का अवसर प्राप्त हो तथा आश्रम व्यवस्था एवं गुरु शिष्य परंपरा द्वारा इस उत्तम व्यवस्था को समाज में भली-भांति स्थापित भी किया गया था। आइए जानने का प्रयास करते हैं वैदिक वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के कर्तव्य कौन-कौन से है।

1. ब्राह्मण वर्णस्थ के कर्म

ब्राह्मण वर्ण को धारण करने वाले मनुष्य के लिए पढ़ना-पढ़ाना तथा यज्ञ करना तथा यज्ञ करने में सहायता देना, श्रेष्ठों को और श्रेष्ठ कार्यों में दान देना और लेना, संसार के कल्याण के लिए नियमों का निर्माण कर उनकी देखभाल करना, यह 6 कर्म निर्धारित किए गए हैं (विशुद्ध मनुस्मृति 1 | 88)

"ब्राह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि उत्तमगुणयुक्तः

पुरुषः" अर्थात वेद और परमात्मा के अध्ययन और उपासना में तल्लीन रहते हुए विद्या आदि उत्तम गुणों को धारण करने से व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है

रामो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् (गीता 18142)

अर्थात स्थिरता, आत्म संयम, तपस्या, पवित्रता, क्षमा, जागरूकता, बुद्धिमत्ता में विश्वास, इंद्रिय निग्रह यह विशेषताएं तथा गुण पुरुष व स्वी परमात्मा में ब्राह्मण कहलाने से पूर्व होने आवश्यक है।

2. क्षत्रिय वर्णस्थो के कर्म

प्रजा की सभी प्रकार से रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना-करवाना, वेद आदि गाग्वेद को पढ़ना तथा विषय में आसक्त न रहकर जितेंद्र रहना यह संक्षेप से क्षत्रिय वर्णधारा करने वाले मनुष्य के कर्तव्य है अतः दुष्टों का का नाश और श्रेष्ठशे की रक्षा करना ही अनुसार वर्णस्थो का मूल धर्म है। (विशुद्ध मनुस्मृति 1189)

साहस, वैभव, दृढ़ता, चतुरता, लडाई छोडकर ना भागना, उदारता, शासक की एक क्षत्रियों के गुण तथा विशेषताएं हैं (गीता 18143)

3. वैश्य वर्णस्थो के कर्म

पशुओं की सब प्रकार से रक्षा करना, श्रेष्ठो को और श्रेष्ठ कार्यों के लिए दान देना, करना करवाना, वेद आदि शास्त्रों को पढ़ना, सब प्रकार का उत्तम व्यापार करन ब्याज लेना, खेती करना-करवाना वैश्य वर्ण मनुष्य के कर्तव्य है। (विशुद्ध मनुस्मृति 1190) को धारण करने हों

मनुस्मृति आधार से  कृषि, गौ रक्षा,व्यापार करना यह सब के सब वैश्य के स्वभाविक कर्म है (गीता ॥। 44)

4. शूद्र वर्णस्थो के कर्म

शूद्र वह व्यक्ति होता है जो किसी भी कुल में उत्पन्न होने के पश्चात अपनी अशिक्षा के कारण किसी उन्नत वर्ण की स्थिति को नहीं प्राप्त कर पाता। अशिक्षा से जिनकी सि जीवन स्थिति रह जाती है, ज्ञान शिक्षा के प्रति जिनकी कोई रुचि नहीं होती और निक नीच कर्मों में लगा रहता है। ऐसे अशिक्षित मनुष्य शूद्र होते हैं अतः जो मनुष्य उप बताए गए तीनों वर्णों के गुणों को धारण नहीं कर सकता उनको शूद्र कहा गया है व जीवन में पुनः कभी भी किसी उच्च वर्ण की शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर उस उच्च वर्णदे दीक्षित हो सकता है अतः कोई जन्म से नहीं कर्म से ही शूद्र होता है।

परमात्मा ने शूद्र वर्ण को धारण करने वाले मनुष्यों का एक ही कर्तव्य निर्दिष्ट किया इन चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) का ईर्ष्या निंदा रहित रहकर सेवा कर करना। क्योंकि इस सृष्टि में आप बिना कर्म किए नहीं रह सकते कुछ ना कुछ तो आपको करना ही होगा। (विशुद्ध मनुस्मृति 1 | 90)

-परिचर्यात्मकं कर्म शुदस्यापि स्वभावजम् (गीता 18 | 44)

अर्थात चारों वर्णों की सेवा करना, सेवा की सामग्री तैयार करना और चारों वर्ण के कार्य में कोई बाधा, अड़चन ना आए, सबको सुख आराम हो इस भाव से अपनी बुद्धि, योग्यता, बल के द्वारा सब की सेवा करना शूद्रों का स्वाभाविक कर्म है।

ऋग्वेद में कहा गया है जो व्यक्ति जिन जिन कमों का पालन करेगा वह उस उस वर्ण का अधिकारी होगा। "निरुक्त" में भी प्रमाण है "वर्णो वणोतेः" अर्थात कर्म के अनुसार जिसका वरण किया जाए वह वर्ण है किसी भी कुल में उत्पन्न व्यक्ति किसी भी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा ले सकता है, और उस वर्ण के गुण कर्म ग्रहण करके उस वर्ण का कहला सकता है, अतः वर्ण जन्म मूलक नहीं, कर्म मूलक है। यह उत्तम वर्ण व्यवस्था का आयोजन ईश्वर के द्वारा समाज को व्यवस्थित, समृद्ध और संगठित करने के लिए किया गया था परंतु अज्ञानता वश हम मनुष्यों ने इसे जाति अर्थात जन्म मूलक बना दिया है, और जिसका अति गंभीर परिणाम आज हम भोग रहे हैं।

वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म

मनुस्मृति में शूद्र को कर्मों के आधार पर वर्णित किया गया है, न कि मात्र जन्म के आधार पर। (अध्याय 10, श्लोक 65) में ऋषि मनु कहते हैं कि

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवंतु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ।।

अर्थ: एक शूद्र अपने कर्मों और गुणों के माध्यम से ब्राह्मण बन सकता है, और ब्राह्मण भी अपने अवगुणों और कुकर्मो के कारण शूद्र बन सकता है। इसी तरह, क्षत्रिय या वैश्य के कुल में जन्मा हुआ व्यक्ति भी अपने ज्ञान और कर्तव्यों के आधार पर अपना वर्ण परिवर्तित कर सकता है।

व्याख्या:     शूद्रो ब्राह्मणतामेतिः यदि कोई शूद्र (जो निम्न कुल या कर्मों से संबंधित है) उत्तम ज्ञान, शिक्षा और सद्‌गुणों को अपनाता है, तो वह ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकता है। इसका अर्थ यह है कि जन्म से शूद्र होने के बाद भी, व्यक्ति अपने कर्मों से ब्राह्मण बन सकता है।

ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्ः इसी प्रकार, यदि कोई ब्राह्मण अपने कर्तव्यों और सद्गुणों से विमुख होकर अशिक्षित, अज्ञानी और नीच कर्म करने लगता है, तो वह शूद्र के समान बन जाता है।192 क्षत्रियाज्जातमेवंत विद्याद्वैश्यात्तथैव चः क्षत्रिय या वेश्य कुल में ज व्यक्ति भी अपने कर्मों और ज्ञान के अनुसार वर्ण परिवर्तन कर सकते हैं। यदि वे ज्ञान और शिक्षा से वंचित होते हैं. तो उनका भी शुदत्व हो सकता है। इसके विपरीत, यदि वे उत्तम गुणों और कर्तव्यों का पालन करते हैं. ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकते हैं।

शूद्रता से मुक्ति का मार्गः

शूद्र वह व्यक्ति होता है जो अशिक्षा और ज्ञान के अभाव के कारण जीवन में उन्नति नहीं कर पाता। ऐसे व्यक्ति न केवल शिक्षा और ज्ञान से वंचित रहते हैं, बल्कि वे निला नीच कर्मों में लगे रहते हैं। उनकी रुचि न तो शिक्षा में होती है, न ही नही आत्मविकास में। इस स्थिति में वे शुद्र की श्रेणी में आते हैं। जो व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के गुणणे को धारण करने में असमर्थ रहता है, उसे शूद्र कहा गया है। हालांकि, यह स्थायी नहीं है। यदि व्यक्ति अपने कर्मों को सुधारता है, शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह किसी भी समय उच्च वर्ण में दीक्षित हो सकता है। शूद्रता जन्म से नहीं, बल्कि कर्म और जीवनशैली से निर्धारित होती है। किसी भी व्यक्ति के लिए शिक्षा और का मार्ग अपनाकर उच्च वर्ण में स्थान प्राप्त करना संभव है।

शूद्र को वेद पढ़ने का अधिकारः सत्य और मिथक का निराकरण

परमात्मा की दृष्टि में भेदभाव का कोई स्थान नहीं। जिस प्रकार एक पिता अपनी संतानों के बीच भेदभाव नहीं करता, उसी प्रकार परमात्मा ने जब मनुष्यों को बनाया, तब कोई जाति-पाति या भेदभाव का विधान नहीं किया। हम सभी उस परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, और हमें समान रूप से अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन समय के साथ, कुछ स्वार्थी और अज्ञानता से भरे लोगों ने समाज में भेदभावपूर्ण व्यवस्थाएं स्थापित कर दीं। यही कारण है कि शूद्रों को वेद पढ़ने से वंचित किया गया, जो एक गंभीर सामाजिक अन्याय है।

क्या शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार है?

यह प्रश्न बहुत लंबे समय से हिंदू समाज में विवाद का विषय बना हुआ है। इस धारणा ने समाज को इस प्रकार दूषित कर दिया है कि आज भी हम इससे पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। लेकिन वेद और शास्त्रों के साक्ष्य स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि वेदों का ज्ञान सभी के लिए है-शूद्र सहित। अब, वेदों के प्रमाण से इस बात को समझने का प्रयास करते हैं।

यजुर्वेद का संदर्भ: सबके लिए वेद का अधिकार

यजूर्वेद में एक महत्वपूर्ण मंत्र है, जिसका तात्पर्य यह है कि वेद पढ़ने और पढाने का अधिकार हर मनुष्य को है। इस मंत्र में, विद्वान व्यक्ति को यह आज्ञा दी जाती है कि हे वेदों का सही अर्थ समझकर सभी को उसका ज्ञान दें, क्योंकि वेदों का ज्ञान अमृत समान है।

यधेमी वाचं कल्याणीमावदानी जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च । प्रियः देवाना दक्षिणाय दाहि भूयास मे कामः। समृद्धयतामुप मादो नमतु ।। यजुर्वेद (26.2)

ऋषि दयानंद सरस्वती ने इस मंत्र की व्याख्या इस प्रकार की है:

(यथेमां वाचं कल्याणी) हे मनुष्यों। जिस प्रकार में (ईश्वर) तुम सबको चारों वेदों का उपदेश करता हूं, वैसे ही तुम भी उन्हें पढ़कर और सब मनुष्यों को पढ़ाओ और सुनाओ। ये वेद वाणी कल्याणकारी है, और इसका लाभ सभी को मिलना चाहिए।

वेद अधिकारः सबके लिए समान

(ब्रम्हराजन्याभ्याशुद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय) इस मंत्र का अर्थ यह है कि वेदों का अधिकार न केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य के लिए है, बल्कि शूद्र और अतिशूद्र के लिए भी है। वेद ईश्वर द्वारा प्रकाशित ज्ञान है, जो हर व्यक्ति के लिए समान रूप से हितकारी है। जिस प्रकार पिता की संपत्ति पर सभी पुत्र-पुत्रियों का समान अधिकार होता है, उसी प्रकार परमपिता परमेश्वर के ज्ञान रूपी संपत्ति पर हर मनुष्य का समान अधिकार है।

ईश्वरः वेदों का प्रचारक

(प्रियो देवानां) ईश्वर स्वयं को वेदों के प्रचारक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि जैसे मैं इस सत्य विद्या का उपदेश करके विद्वानों के आत्मा में प्रिय हो रहा हूं, वैसे ही तुम भी पक्षपात रहित होकर इस वेद विद्या को सबके लिए प्रिय बनाओ।

वेद प्रचार की आवश्यकता

(अयं मे कामः समृध्यताम्) ईश्वर की यह इच्छा है कि जैसे वेदों का प्रचार उनके द्वारा किया जा रहा है, वैसे ही मनुष्य भी इस ज्ञान को संसार में प्रसारित करें। यही कारण है कि वेद विद्या को ग्रहण करने और प्रचार करने से व्यक्ति मोक्ष और संसार के सुखों को प्राप्त कर सकता है।निष्कर्षः शूद्रों का वेद अध्ययन पर अधिकार

इस संदर्भ से यह स्पष्ट होता है कि वेदों का ज्ञान सभी के लिए समान रूप से उपन है। वेद ईश्वर का अमूल्य उपहार हैं. और ईश्वर ने किसी को भी इस ज्ञान से करने का आदेश नहीं दिया। यह समाज में व्याप्त अज्ञानता और स्वार्थी प्रवृत्तियोंक ही परिणाम है कि शुद्रों को इस अमूल्य ज्ञान से दूर रखा गया। वेदों का प्रचार-प्रसा हर जाति और हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है, और सभी को इस ज्ञान का अधिका है, जैसा कि यजुर्वेद और अन्य शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है।

गलत मान्यताओं एवं कुरीतियों का मूल कारण

वेदों में स्वयं ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान अधिकार प्रदान किया है, जिसमें देर पढ़ने और ज्ञान अर्जित करने का अधिकार भी सम्मिलित है। फिर भी, हमारे समाज में भेदभाव और गलत धारणाओं का उदय कैसे हुआ? इसका उत्तर यह है कि हमने सत्य शास्त्रों का अध्ययन करना छोड़ दिया, और बिना किसी तर्क या बुद्धि का प्रयोग किए सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करना शुरू कर दिया।

शास्त्रों का अध्ययन और मिलावट की समस्याः

हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में समय के साथ मिलावट की समस्या सामने आई। पौराणिक काल में सभी शास्त्र हस्तलिखित होते थे, जिससे उनमें मिलावटी श्लोकों को जोड़न आसान हो गया। स्वार्थी तत्वों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति और समाज में अपने मान्यताओं को थोपने के लिए ग्रंथों में प्रक्षिप्त श्लोकों का समावेश किया। रामायण महाभारत, और मनुस्मृति इस संदर्भ में प्रमुख उदाहरण हैं, जिनमें विरोधाभासं विचार और मान्यताएं देखने को मिलती हैं।

तर्क और बुद्धि से गलत श्लोकों की पहचानः

यदि हम थोड़ा तर्क और बुद्धि का प्रयोग करें, तो इन मिलावटी श्लोकों को पहचानन कठिन नहीं है। अक्सर एक ही ग्रंथ में दो परस्पर विरोधी मान्यताएं देखने को मिलते हैं। जैसे, एक श्लोक किसी कर्म को उचित ठहराता है, तो दूसरा उसी का खंडन करता है। यह स्पष्ट करता है कि एक ही लेखक द्वारा ऐसे विरोधी विचार नहीं है सकते। इसलिए, तर्क और विवेक का प्रयोग करके इन मिलावटों को समझा जा सकता है।195

कृति और स्मृति में अंतर का महत्व:

सूत्र में ऋषि व्यास कहते हैं कि जहां श्रुति (वेद) और स्मृति (अन्य धर्मग्रंथ) में टकराव हो, वहां श्रुति को ही सर्वोच्च माना जाएगा। वेद एकमात्र ईश्वरीय ग्रंथ हैं, और उनका संदेश अपरिवर्तनीय है। इसलिए, जब भी श्रुति और स्मृति में कोई विरोध हो, हमें वेदों का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि वे ही सत्य का मूल स्रोत हैं।

समाज में गलत धारणाओं का खंडनः

सत्य शास्त्रों का अध्ययन करने से ही हम समाज में व्याप्त गलत धारणाओं और करीतियों का सटीक प्रमाणों के साथ खंडन कर सकते हैं। वेदों और वेद-सम्मत शास्त्रों का ज्ञान हमें सही मार्ग दिखाता है और हमें समाज में फैली अज्ञानता और अन्याय से मुक्त करता है।

संसार की व्यवस्था में त्रुटियों का सुधारः

हमारे ऋषि-मुनि कहते थे कि संसार की सभी व्यवस्थाएं शत-प्रतिशत परिपूर्ण और सर्वमान्य नहीं हो सकतीं। अगर किसी व्यवस्था में त्रुटि आ जाती है, तो उसका शुद्धीकरण किया जा सकता है और करना उचित भी है। किसी भी काल में उत्पन्न विसंगतियों और त्रुटियों को सुधारने का रास्ता हमेशा खुला रहता है।

तैत्तिरीयोपनिषद का मार्गदर्शनः (तैत्तिरीयोपनिषद 1-11-2)

"अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि, नो इतराणि"

अर्थातः "हमारे जो उत्तम आचरण हैं, उन्हीं का अनुसरण करना चाहिए, अन्य का नहीं।"

यह उपनिषद का मंत्र हमें यह सिखाता है कि हमें अपने पूर्वजों के उन गुणों का ही अनुकरण करना चाहिए जो श्रेष्ठ हैं, और तुच्छ या अप्रासंगिक गुणों का त्याग करना चाहिए। इस सिद्धांत को अपनाकर हम किसी भी काल में अपने जीवन को श्रेष्ठ और आदर्श बना सकते हैं।

वैदिक शिक्षाः श्रेष्ठ गुणों का धारण

वैदिक शास्त्रों का मुख्य संदेश हैः "मनुर्भवः", अर्थात श्रेष्ठ गुणों को धारण कर 'मनुष्य' बनो। यह केवल शारीरिक रूप से मनुष्य होने का संदर्भ नहीं है, बल्कि मानसिक और आत्मिक रूप से भी मनुष्य होने की योग्यता प्राप्त करना है। हमारे ऋषि-मुनियोंने जो ओर और उत्तम गुण स्थापित किए थे, उनका अनुसरण करना ही सच्चे माल का प्रमाण है।

निष्कर्ष: हमारे पूर्वजों ने जो उत्तम और आदर्श

आदर्श आचरण स्थापित किए, वेर वे समय समाज की आवश्यकता के अनुसार थे। हमें उन आचरणों और गुणों को आत्मसार करना चाहिए जो आज भी प्रासंगिक और श्रेष्ठ है। इस दृष्टिकोण से हम त्रुटियों शुद्धीकरण कर सकते हैं हैं और मानव जीवन को और भी अधिक आदर्श बना सकते हैं| 

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