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क्या स्वप्न वास्तव में हमारे जीवन का प्रतिबिंब होते हैं,या मिथ्या मात्र जाने

शास्त्रों के अनुसार, स्वप्नों की उत्पत्ति और उनके पीछे छिपे रहस्यों का संबंध जीवात्मा के पूर्व जन्मों के कर्मों और संस्कारों से है। विशेष रू...


शास्त्रों के अनुसार, स्वप्नों की उत्पत्ति और उनके पीछे छिपे रहस्यों का संबंध जीवात्मा के पूर्व जन्मों के कर्मों और संस्कारों से है। विशेष रूप से ब्रह्म सूत्र, उपनिषद और वैदिक ग्रंथों में स्वप्नों की व्याख्या को ईश्वर की योगमाया और जीवात्मा के कर्मफल मे जोड़ा गया है। आइए इसे नए दृष्टिकोण से समझते हैं:

 स्वप्नः कर्म और संस्कारों का प्रतिबिंब

ब्रह्म सूत्र (अध्याय 3, पाद 2, श्लोक 1-6) के अनुसार, जीवात्मा ईश्वर का अंश है और

उसमे  ईश्वर के गुण छिपे रहते हैं। जन्म-जन्मांतरों के कर्म और संस्कार जीवात्मा की चेतना पर गहरे प्रभाव डालते हैं. और इन्हीं कर्म संस्कारों के आधार पर स्वप्नों का य निर्माण होता है। ईश्वर अपनी योगमाया के माध्यम से जीवात्मा को उसके पूर्व जनचे के कर्मों के अनुसार विभिन्न दृश्य दिखाते हैं।

स्वप्न वास्तव में हमारे जीवन का प्रतिबिंब होते हैं, लेकिन ये दृश्य वास्तविकता नहीं होते। यह मात्र माया है, जिसमें जीवात्मा उन कर्मों और इच्छाओं का अनुभव करता है जो उसके अंतर्मन में छिपे होते हैं।

 स्वप्नः माया की एक खेल

शास्त्रों में स्वप्न को माया का खेल कहा गया है। जागृत अवस्था की तरह यह सुहि वास्तविक नहीं होती। स्वप्न में हमें जो दृश्य दिखते हैं, वे हमारे पूर्व कर्मों के आधार पर निर्मित होते हैं, लेकिन इनमें कोई स्थायित्व नहीं होता। यही कारण है कि स्वप्न में किए गए कर्मों का वास्तविक जीवन में कोई फल प्राप्त नहीं होता है।

बृहदारण्यक उपनिषद (4.3.9-10) में स्वप्न की व्याख्या करते हुए कहा गया है:

"स्वप्न की अवस्था में जीवात्मा इस लोक और परलोक दोनों का अनुभव करता है। वह सुख-दुख का भोग करता है, परंतु यह अनुभव केवल उसकी वासनाओ और कल्पनाओं का परिणाम होता है।"

इसका अर्थ यह है कि स्वप्न की अवस्था में जीवात्मा मानसिक रूप से एक नई ही का निर्माण करता है, जिसमें वह अपने कर्मों और इच्छाओं के आधार पर विभित्र अनुभवों से गुजरता है। यह अनुभव वास्तविक नहीं होते, लेकिन जीवात्मा की बेला पर गहरा प्रभाव डालते हैं।

 योगमाया और स्वप्र का संबंध

बैंकर ने स्वाको योगमाया के माध्यम से जीवात्मा के कर्मफल के आभास के लिए पत किया है। जागृत अवस्था में जो कर्म किए जाते हैं, उनका परिणाम निश्चित होता परंतु स्थान में किया गया कोई भी कर्म वास्तविकता में फलित नहीं होता। यह ईश्वर की व्यवस्था का एक हिस्सा है, जहाँ स्वप्न के माध्यम से जीवात्मा को अपने कमों का कोध कराया जाता है, लेकिन उसका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता।

ब्रह्म सूत्र में यह स्पष्ट किया गया है:

"स्था में जीवात्मा को उसके कर्मों के अनुसार दृश्य दिखाए जाते हैं, जो ईश्वर की योगमाया से उत्पन्न होते हैं। यह दृश्य अस्थायी होते हैं और जागृत अवस्था की तरह सत्य नहीं होते।"

इससे स्पष्ट होता है कि स्वप्न के दृश्य केवल मानसिक प्रक्रियाओं और कर्मों का परिणाम होते हैं, जिनका भौतिक जगत में कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता।

 स्वप्न और जागृत अवस्था का भेद

स्वप्न और जागृत अवस्था के बीच का मुख्य अंतर यह है कि जागृत अवस्था में किए गए कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है, जबकि स्वप्न में यह नियम लागू नहीं होता। स्वप्न की सृष्टि माया पर आधारित होती है, जो जीवात्मा को अस्थायी रूप से अपने कर्मों के प्रभाव का अनुभव कराती है। जागृत अवस्था में, कर्मों का सीधा प्रभाव जीवन पर पड़ता है, जबकि स्वप्न केवल मानसिक गतिविधियों का खेल होता है।

सपना वास्तव में देखता कौन है?

कठोपनिषद (2.2.8) में उल्लेख किया गया है: "य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः" - इसका अर्थ है कि जब शरीर सो जाता है, तब 'पुरुष' रूपी जीवात्मा जागृत रहता है और नाना प्रकार के भोगों की रचना करता है। यानी, शरीर के सो जाने पर भी जीवात्मा की चेतना सक्रिय रहती है, और यही चेतना स्वप्नों का सृजन करती है। अतः, स्वप्न वास्तव में जीवात्मा द्वारा ही देखा जाता है।

स्वप्न की सृष्टि के बारे में श्रुति स्पष्ट करती है कि स्वप्न में जो वस्तुएं देखी जाती हैं, वे वास्तविक नहीं होतीं। स्वप्न की दुनिया अधूरी और अनियमित होती है। यह जीवात्मा की चेतना का खेल है, जहाँ जागृत अवस्था में देखी, सुनी, या अनुभव की गई वस्तुएं अनोखे और विचित्र ढंग से प्रकट होती हैं। प्रश्नोपनिषद भी यही बताता है कि जीवात्मा स्वप्न में जागृत अवस्था में सुनी और देखी गई वस्तुओं को पुनः अनुभव करता है, किंतुयह अनुभव अजीब और अप्रत्याशित होता है। वह देखी और अनदेखी सुनी औ अनसुनी वस्तुओं को भी स्वप्न में देख सकता है. और कभी-कभी लोक और परलोक की वस्तुओं का भी दर्शन करता है।

स्वप्न पूरी तरह से व्यर्थ नहीं होते। कुछ अवसरों पर वे भविष्य में होने वाली शुभया अशुभ घटनाओं का संकेत भी देते हैं। इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि स्वा केवल जीवात्मा की स्वतंत्र रचना नहीं है। वास्तव में, यह ईश्वर की योगमाया औ उसकी शक्ति के माध्यम से घटित होता है। जीवात्मा इस प्रक्रिया में सिर्फ एक निमित है, जबकि वास्तविक नियंत्रण और संचालन परमेश्वर की शक्ति से होता है।

इस प्रकार, स्वप्नों का अनुभव जीवात्मा की चेतना और ईश्वर की माया के मिलन का परिणाम है। यह केवल मन का खेल नहीं बल्कि एक देवीय व्यवस्था का हिस्सा है जहाँ स्वप्न जीवन के भूत, भविष्य, और कर्मों के बंधनों का सूचक बनते हैं।

निष्कर्ष: शास्त्रों के अनुसार, स्वप्न जीवात्मा के लिए एक मानसिक और माया से निर्मित अवस्था है, जो उसके पूर्व जन्मों के कर्मों और संस्कारों से प्रेरित होती है। स्वप्र की सृष्टि वास्तविकता नहीं होती, बल्कि यह जीवात्मा की इच्छाओं और कर्मों का प्रतिबिंब होती है। यह ईश्वर की योगमाया के माध्यम से उत्पन्न होती है, जिससे जीवात्मा को कर्मफल का आभास होता है, लेकिन इसका कोई स्थायी प्रभाव नहीं होता। इस प्रकार, स्वप्न माया का एक खेल है, जो जीवात्मा को उसकी मानसिकत और कर्मों के आधार पर विविध अनुभव कराता है, परंतु वास्तविक जीवन में इसका कोई प्रत्यक्ष परिणाम नहीं होता।


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