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धर्म क्या है ?अधर्म क्या है?

आजकल संप्रदायों और विभिन्न मतमतांतरों ने धर्म शब्द का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया है, जिसके परिणामस्वरूप धर्म के नाम पर अनेक झगड़े हो रहे है...


आजकल संप्रदायों और विभिन्न मतमतांतरों ने धर्म शब्द का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया है, जिसके परिणामस्वरूप धर्म के नाम पर अनेक झगड़े हो रहे हैं। यह प्रश्न उठता है कि धर्म वास्तव में है क्या? कई लोग धर्म को रिलीजन' या मजहब के रूप में देखते हैं, लेकिन ये शब्द धर्म के वास्तविक अर्थ से बिल्कुल भिन्न हैं।

रिलीजन या मजहब किसी विशेष मत, पंथ या संप्रदाय के अनुयायियों के लिए बनाए गए नियमों का समूह है। यह एक विचारधारा है, जो केवल उस विशेष पंथ / संप्रदाय के अनुयायियों के कल्याण की बात करती है। इसके विपरीत, धर्म का अर्थ संप्रदाय या रिलीजन से नहीं है संपूर्ण सृष्टि से हैं। वैदिक सनातन धर्म संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए निर्धारित सर्वोत्तम नियमों का नाम है, जो ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है और किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता।

धर्म का शाब्दिक अर्थ

धर्म शब्द "धू" धातु से बना है, जिसका अर्थ है "धारण करना। "धारयति इति धर्मः" अर्थात, जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। अब यह विचार करना चाहिए कि धारण करने योग्य क्या है - श्रेष्ठ या तुच्छ? निश्चित रूप से श्रेष्ठ ही धारण करने योग्य है। इसीलिए, श्रेष्ठ आचार-विचार, श्रेष्ठ कर्तव्य और कर्म ही मनुष्य के लिए धारण करने योग्य होते हैं।

जिस आचरण से मनुष्य को आत्मिक, मानसिक और शारीरिक उन्नति प्राप्त होती है. और जिन गुणों को धारण करने से व्यवहारिक सुख एवं मोक्ष की सिद्धि होती है, वही आचरण या कर्तव्य धर्म कहलाता है। वेदों में मनुष्य के लिए जो कर्तव्यों का विधान किया गया है, वही सच्चा धर्म है और उसके विपरीत अधर्म है।

धर्म का व्यापक स्वरूप

धर्म केवल मनुष्य का नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि के कण-कण का है। सृष्टि के प्रत्येक वस्तु का अपना एक धर्म होता है, ईश्वर ने सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ को जिस-जिस उद्देश्य से बनाया है अगर वहां उन गुणों को धारण करता है वही उसका धर्म बन जाता है जो ईश्वर द्वारा उसे प्रदान किया गया है। उदाहरण के लिए:11

अनल का धर्म उसकी उष्णता है।

जल का धर्म उसकी शीतलता है।

सूर्य का धर्म है प्रकाश देना ।

वायु का धर्म उसकी चंचलता, शुष्कता है।

अब सूर्य ने प्रकाश को धारण किया है तो सूर्य का धर्म प्रकाश देना है, अब अगर वह प्रकाश देना बंद कर दे, तो वह अधर्मी कहलाएगा। उसी प्रकार, मनुष्य को सदाचार, सत्य भाषण, परोपकार, अहिंसा आदि गुणों को धारण करने के लिए बनाया गया है। अगर वह इन गुणों को छोड़कर विपरीत गुणों को धारण करता है, तो वह अधर्मी माना जाएगा। अतः श्रेष्ठ गुणों को धारण करना ही मनुष्य मात्र का एकमात्र धर्म है। जिसे मानव धर्म कहा जाता है।

इस प्रकार, ईश्वर ने सृष्टि के प्रत्येक जीव के लिए एक विशिष्ट कर्म निर्धारित किया है। जब कोई जीव अपने निर्धारित कर्म का पालन करता है, तो वह धर्माचरण कहलाता है, और अगर वह इसके विपरीत करता है, तो उसे अधर्माचरण कहा जाता है। इसी के अनुसार जीवों को उनके कर्मों का फल भी मिलता है। "धर्मो रक्षति रक्षितः" अर्थात, धर्म की रक्षा करो, तो वह तुम्हारी रक्षा करेगा। धर्म ही इस चराचर जगत और सभी जीवों के जीवन का मूल है। धर्म के बिना इस सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए, धर्मानुसार आचरण करें, सत्य का ग्रहण करें, और असत्य का त्याग करें।

धर्म सनातन है, समय के साथ इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। इसे न हीं उत्पन्न किया जा सकता है न ही नष्ट किया जा सकता है यह तो ईश्वर प्रदत होता है। जो सृष्टि के कल्याण के लिए ईश्वर के उपदेशात्मक रूप में वेदों के माध्यम से उत्पन्न होता है इसलिए इसे वैदिक सनातन धर्म कहा जाता है, जो सृष्टि के आरंभ से ही अस्तित्व में है और सदा ही रहेगा।

धर्म का उद्देश्य

धर्म का उद्देश्य न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सामाजिक और वैश्विक कल्याण है। वेदों में यह स्पष्ट किया गया है कि धर्म केवल किसी एक जाति, संप्रदाय या देश के लिए नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण सृष्टि और समस्त मानवता के लिए समान रूप से उपयोगी है।

वेदों में निहित शिक्षाएं सर्वोत्तम और धारण करने योग्य हैं, जो व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र को उन्नति के मार्ग पर ले जाती हैं। महर्षि मनु कहते हैं कि 'वेदो अखिलो धर्ममूलम्' (2.6) अर्थात, वेद ही इस सृष्टि में धर्म का मूल आधार हैं। अतः जो वेद विरुद्ध है, वह अधर्म है।

धर्म के 10 लक्षण


धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (विशुद्ध मनुस्मृति 6.92)

मनुस्मृति में धर्म के 10 प्रमुख लक्षण बताए गए हैं, जो वेदों के अनुसार धर्म का स्वरूप स्पष्ट करते हैं:

1. धृति - विपत्ति या कष्ट में भी धैर्य बनाए रखना और धर्म का पालन करते हुए विचलित न होना।

2. क्षमा - अपमान, हानि या निंदा सहन कर भी सहनशील बने रहना।

3. दम-ईर्ष्या, लोभ, मोह और द्वेष जैसे विचारों से मन को मुक्त रखना।

4. अस्तेय - किसी भी प्रकार की चोरी, छल या अन्याय से दूर रहना।

5. शौच तन और मन की पवित्रता बनाए रखना।

6. इंद्रियनिग्रह-इंद्रियों को नियंत्रित रखना और उन्हें धर्म के काम में लगाना।

7. धी- बुद्धि का विकास करना और विचारपूर्वक कर्म करना।

8. विद्या - सत्य विद्या का अध्ययन और ज्ञान का विकास करना।

9. सत्यम-मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन करना।

10. अक्रोध - क्रोध और प्रतिशोध की भावना से मुक्त रहना।

धर्म, सृष्टि के निर्धारित नियमों का समूह है। धर्म का पालन करना, न केवल आत्मिक, मानसिक और शारीरिक उन्नति के लिए आवश्यक है, बल्कि यह मोक्ष की प्राप्ति का भी मार्ग है। धर्म का मूल उद्देश्य सत्य और सदाचार का पालन करना है, जो मनुष्य को जीवन में संतुलन और शांति की ओर ले जाता है।

धर्म सनातन और अपरिवर्तनीय है, और इसका पालन करने से ही मनुष्य सच्चे सुख की प्राप्ति कर सकता है। धर्म के 10 लक्षणों का जो मनुष्य अध्ययन और मनन करते हैं, और उनका पालन करते हैं, वे सभी उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। आज के समय में समाज में जो तथाकथित धर्म प्रचलित है, वह अक्सर केवल एक पंथ या विचारधारा तक सीमित रह जाता है। जबकि वास्तविक धर्म केवल मनुष्य तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह संपूर्ण सृष्टि के लिए होता है। धर्म ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है और उसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं है। धर्म कभी भी भेदभाव या पक्षपात नहीं करता, वह तो जोड़ना सिखाता है।

अधर्म क्या है?

अधर्म उन कृत्यों और कर्मों को कहा जाता है, जिनके करने से मन में भय, शंका, राग, द्वेष और ग्लानि का अनुभव होता है। अधर्म के कर्म वे होते हैं जो मनुष्य के आंतरिक शांति और संतुलन को भंग कर देते हैं। मन द्वारा प्रेरित क्रियाकलाप ही कर्म कहलाते हैं, और जब ये क्रियाकलाप दूसरों को कष्ट पहुंचाने वाले होते हैं, तो वह अधर्म बन जाता है।

अधर्म के कुछ लक्षण और उदाहरण इस प्रकार हैं:

मन, वचन, और शरीर से किसी भी जीव को कष्ट देना या हिंसा करना।

दूसरों के प्रति घृणा, द्वेष या राग उत्पन्न करना।

अपने स्वार्थ के लिए अन्य लोगों को हानि पहुंचाना या उनके अधिकारों का उल्लंघन करना।

मनुष्य की स्वतंत्रता और कर्म का फल

मनुष्य को अच्छा या बुरा कर्म करने की पूरी स्वतंत्रता प्राप्त है, लेकिन उसके कर्मों के परिणामों को भोगने में वह परतंत्र है। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी है ताकि वह हर कर्म को सोच-समझकर, हानि-लाभ का विचार कर, उचित ढंग से करे। हर कर्म का फल निश्चित रूप से प्राप्त होता है, चाहे वह इस जन्म में मिले या अगले जन्म में, कर्म का फल भोगे बिना नहीं कटते है।

अधर्म के परिणाम

कर्म कभी निष्फल नहीं होते। जो कर्म अधर्म के अनुसार किए जाते हैं, उनके परिणामस्वरूप व्यक्ति को दुख, अशांति और पाप स्वरूप फल भोगना पड़ते है।14

अधर्म के कृत्य वे हैं जो मनुष्य के मन, समाज और संपूर्ण सृष्टि को नुकसान पहुंचाते है। इन्हें करने से व्यक्ति न केवल अपने जीवन में कष्ट पाता है, बल्कि भविष्य में भी उसके कर्मों के परिणामस्वरूप दुःख प्राप्त होता है। इसलिए, वेदों में कहा गया है "मनुर्भवः" अर्थात, मनुष्य बने और धर्म के अनुसार कर्म करें। धर्म के मार्ग पर चलकर मनुष्य अपने कर्मों से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। अगर कोई व्यक्ति धर्म का पालन करते हुए भी मृत्यु को प्राप्त होता है, तो उसकी आत्मा को परम गति प्राप्त होती है। अतः मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलकर सही कर्म करने चाहिए ताकि उसे आत्मिक और मानसिक शांति के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ति हो सके।

धर्म की रक्षा कैसे संभव है

धर्म की रक्षा करने से पहले, सबसे महत्वपूर्ण है कि हम धर्म को सही ढंग से समझें धर्म क्या है और इसका वास्तविक स्वरूप क्या है? इसे समझने के लिए हमें वैदिक सनातन धर्म के मूल धर्म ग्रंथों का अध्ययन करना होगा। आज के समय में, हम भौतिक उन्नति, भोग-विलास, मोबाइल, टीवी, इंटरनेट में इतने व्यस्त हो चुके हैं कि शास्त्रों (वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, भगवत गीता) को पढ़ने का समय ही नहीं निकाल पाते। इस वजह से हम अपनी मूल संस्कृति और धर्म से दूर होते जा रहे हैं। आज की शिक्षा प्रणाली भी पूर्ण रूप से पश्चिमीकरण और अंग्रेजीकरण की ओर बढ़ चुकी है, जिसके कारण हम अपनी संस्कृति की जड़ों से कटते जा रहे हैं। अगर यही चलता रहा, तो आने वाली पीढ़ियां अपनी वैदिक सनातन संस्कृति से पूरी तरह दूर हो जाएंगी और शायद क्रिश्चियन या अन्य पश्चिमी संस्कृतियों का पालन करने लगेंगी। यह गंभीर स्थिति होगी, और इसका उत्तरदायी केवल हम ही होंगे, क्योंकि हमने अपनी भविष्य की पीढ़ियों को सनातन धर्म और संस्कृति के बारे में अवगत नहीं करवाया। धर्म और संस्कृति की रक्षा का बीज घर से ही बोया जा सकता है और इसमें माता-पिता की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। हमें अपनी आने वाल पीढ़ियों को यह बताना होगा कि उनकी संस्कृति और धर्म कितना महान है। यदि हम स्वयं धर्म और संस्कृति का अध्ययन नहीं करेंगे, तो अपने बच्चों को क्या सिखाएंगे और यदि वे अपने बच्चों को यह नहीं सिखाएंगे, तो पूरी संस्कृति भ्रष्ट हो जाएगी और समाज में केवल भौतिकवादी दृष्टिकोण ही रह जाएगा।

इसलिए, यह आवश्यक है कि हम आज ही से अपने घरों में वैदिक शास्त्रों क शिक्षा-दीक्षा को बढ़ावा दें। हमें अपनी संस्कृति और धर्म के महान मूल्यों को समझन और आत्मसात करना होगा। वैदिक शास्त्रों के अध्ययन और पालन के माध्यम से हम धर्म की सच्ची रक्षा कर सकते हैं। यह कार्य केवल हमारे व्यक्तिगत प्रयासों से नहीं होगा, बल्कि इसके लिए हमें समाज में सामूहिक रूप से जागरूकता फैलानी होगी

इस महान कार्य में प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी आवश्यक है। माता-पिता, शिक्षक, विद्वान और समाज के हर व्यक्ति को इस दिशा में योगदान देना होगा। अपनी संस्कृति की रक्षा और उसे जीवित रखने के लिए हमें अपने बच्चों को वैदिक शास्त्रों का महत्व समझाना होगा और उन्हें धर्म के मूल सिद्धांतों से अवगत कराना होगा।

हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि सत्य ही धर्म का आधार है। जिस प्रकार मनुष्य धार्मिकता में प्रगति करता है, वह उतना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी अपनाने लगता है. क्योंकि धर्म का गहरा संबंध विज्ञान से है। अतः धर्म की सच्ची रक्षा तभी हो सकती है जब हम इसे सही ढंग से समझें, उसका पालन करें, और आने वाली पीढ़ियों को इसके महत्व से परिचित कराएं। धर्म की शिक्षा के बिना समाज अपनी दिशा खो देता है, इसलिए हमें आज ही से इस दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।

धर्म और मजहब/रिलीजन में अंतर

धर्म और मजहब (या रिलीजन) दोनों शब्दों का उपयोग प्रायः एक-दूसरे के स्थान पर किया जाता है, परंतु इनका अर्थ और प्रकृति एक-दूसरे से भिन्न हैं। आइए, इन दोनों के बीच अंतर को विस्तार से समझते हैं:

1. धर्म का अर्थ और स्वरूप

धर्म सनातन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण शब्द है, जिसकी उत्पत्ति वेदों से हुई है। धर्म का शाब्दिक अर्थ है "धारण करना," यानी वह नियम या कर्तव्य जिसे जीवन में धारण किया जाए। धर्म केवल मनुष्य के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि के कण-कण के लिए होता है।

धर्म का आधार ईश्वरीय नियम होते हैं, जो सृष्टि के संचालन के लिए आवश्यक होते हैं। यह न कभी बदलता है, न इसमें समय के साथ कोई परिवर्तन होता है। धर्म अनादि और सनातन है इसका न कोई आरंभ है, न कोई अंत।

धर्म न तो भेदभाव करता है और न ही पक्षपात। यह संपूर्ण सृष्टि को समान रूप से संचालित करता है। धर्म के अनुसार, मनुष्य को सद्गुण, सदाचरण, कर्तव्यों और सत्य को धारण करना चाहिए, ताकि वह आत्मिक, मानसिक और शारीरिक उन्नति कर सके।

धर्म का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक, पारिवारिक और वैश्विक कल्याण है। धर्म मनुष्य को उसकी सही भूमिका, कर्तव्यों और आचरण की दिशा में मार्गदर्शन देता है।

2. मजहब/रिलीजन का अर्थ और स्वरूप

 मजहब या रिलीजन एक विचारधारा है, जो किसी विशेष मत, पंथ या संप्रदाय से जुड़ी होती है। इसका निर्माण मनुष्यों द्वारा किया गया होता है, जो उस विशेष समूह के अनुयायियों के लिए नियम और आचार संहिता निर्धारित करता है।

मजहब या रिलीजन समय के साथ बदल सकते हैं और इनका विभिन्न रूपों में विस्तार हो सकता है। अलग-अलग मजहबों के मत और विचारधाराएँ एक-दूसरे से भिन्न हो सकती हैं, और कई बार परस्पर विरोधाभासी भी हो सकती हैं।

मजहब के साथ सदाचार का अनिवार्य संबंध नहीं होता। कोई व्यक्ति सदाचारी हो सकता है, लेकिन तब तक उसे मजहब या रिलीजन का अनुयायी नहीं माना जाएगा, जब तक वह उस मजहब के मंतव्यों एवं विचारों को स्वीकार नहीं करता।

उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति अल्लाह या गाँड का सच्चा उपासक हो और उच्च नैतिक गुणों से युक्त हो, लेकिन यदि वह हज़रत ईसा और बाइबिल पर विश्वास नहीं करता, तो वह ईसाई नहीं कहलाएगा। इसी प्रकार, बिना हज़रत मोहम्मद और कुरान शरीफ पर विश्वास किए कोई मुसलमान नहीं बन सकता।

3. धर्म और मजहब/रिलीजन/मत/पंथ/संप्रदाय में मुख्य अंतर

धर्म मनुष्य को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाता है। धर्म के अनुसार, मनुष्य और ईश्वर के बीच किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य योग और उपासना के माध्यम से ईश्वर से सीधा संबंध स्थापित कर सकता है।

इसके विपरीत, मजहब/रिलीजन/मत/पंथ/संप्रदाय मनुष्य को परतंत्र बनाता है, क्योंकि मजहब में ईश्वर और मनुष्य के मध्य पीर पैगंबर की आवश्यकता होती है।17

 धर्म सत्य, सदाचार और ईश्वर की उपासना पर आधारित होता है, जबकि मजहब/रिलीजन/मत/पंथ/संप्रदाय अधिकतर ईश्वर के स्थान पर किसी विशेष व्यक्ति/तथाकथित गुरु/पैगंबर की इबादत/Prayer/पूजा पर बल देता है।

धर्म का उद्देश्य श्रेष्ठ और कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करना है। धर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति सदाचारी होता है और मोक्ष की प्राप्ति करता है। धर्म का पालन करना आत्मा की उन्नति और मोक्ष की सिद्धि के लिए आवश्यक है। मजहब का उद्देश्य संबंधित पंथ या संप्रदाय के अनुयायियों को एक विशेष धार्मिक विचारधारा के अनुरूप जीवन जीने के लिए प्रेरित करना है। यह अनुयायियों के लिए निर्धारित नियमों का पालन करने पर बल देता है, जो उस विशेष पंथ के भीतर कल्याण की बात करता है।

धर्म और मजहब/रिलीजन में मूल अंतर यह है कि धर्म ईश्वरीय नियम है, जो संपूर्ण सृष्टि के संचालन के लिए है, जबकि मजहब या रिलीजन मनुष्य-निर्मित है, जो विशेष समूह या पंथ के कल्याण के लिए होता है। धर्म के साथ सदाचार और सत्य का घनिष्ठ संबंध है, जबकि मजहब/रिलीजन में यह आवश्यक नहीं है। धर्म मनुष्य को ईश्वर के साथ सीधा संबंध स्थापित करने का मार्ग दिखाता है, जबकि मजहब में ईश्वर और साधक के बीच किसी मध्यस्थ की आवश्यकता होती है।

धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति सत्य, सदाचार, अहिंसा और परोपकार का अनुसरण करता है, और यही उसे मोक्ष की ओर ले जाता है। अतः, धर्म और मजहब के अंतर को समझकर मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए, ताकि वह सत्य की प्राप्ति और मोक्ष को सिद्ध कर सके। 


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