पुंसवन संस्कार क्यों-punsavan sanskaar kyon- पुंसवन संस्कार गर्भस्थापन के तीन माह के भीतर ही करने का विधान है। इस संस्कार से पुरुष शुक्र क...
पुंसवन संस्कार क्यों-punsavan sanskaar kyon-
पुंसवन संस्कार गर्भस्थापन के तीन माह के भीतर ही करने का विधान है। इस संस्कार से पुरुष शुक्र को बल प्रदान किया जाता है, जिससे प्रथम संतान पुरुष ही होती है। इस संस्कार से गर्म में स्थित लिंग का परिवर्तन भी किया जा सकता है।
गर्भाधान से लेकर तीन माह तक शिशु का लिंग निर्धारित नहीं होता है। तीन माह बाद शिशु का लिंग निर्धारण होने पर गर्भ में तीव्र स्पंदन होने लगता है। अतः तीन माह बाद लिंग परिवर्तन संभव नहीं।
गर्भ जब दो-तीन महीने का होता है अथवा स्त्री में गर्भ के चिह्न स्पष्ट हो जाते हैं, तब के समुचित विकास के लिए पुंसवन-संस्कार किया जाता है। प्रायः तीसरे महीने से स्त्री के गर्भ में शिशु के भौतिकशरीर का निर्माण प्रारंभ हो जाता है, जिसके कारण शिशु के अंग और संस्कार दोनों अपना स्वरूप बनाने लगते हैं।
गर्भस्थशिशु पर माता-पिता के मन और स्वभाव का गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः माता को मानसिक रूप से गर्भस्थ शिशु की भलीप्रकार देखभाल करने योग्य बनाने के लिए इस संस्कार का विशेष महत्त्व है। धर्मग्रंथों में पुंसवन-संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्रप्राप्ति और दूसरा स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान पाने का है।
पहले उद्देश्य के संदर्भ में स्मृतिसंग्रह में लिखा है- गर्भस्थशिशुगर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात् इस गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो, इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है। मनुस्मृति 9/138 में पुंसवन संस्कार का विस्तार से विधान मिलता है-
पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात् त्रायते पितरं सुतः अर्थात् 'पुम नामक नरक से जो रक्षा करता है, उसे पुत्र कहते हैं।"
इसीलिए नरक से बचने के लिए मनुष्य पुत्र-प्राप्ति की कामना करता है। मनु महाराज के शब्दों में-गर्भाद्भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात् गर्भ के अंदर कन्याशरीर न बनकर पुत्रशरीर ही बने, यही पुंसवन-संस्कार का फल है।
पुंसवन संस्कार की व्याख्या करते हुए धर्मग्रंथों में धार्मिक आस्था पर विशेष बल दिया गया है। जिसका सीधा सा अर्थ माता को आत्मिक रूप से सबल बनाना है। यथा-जो लोग वेद-मंत्रों की अलौकिक शक्ति पर परम श्रद्धा रखकर पुंसवन संस्कार करते हैं, तो इससे स्त्री के भावप्रधान मन में पुत्रभाव का संकल्प उत्पन्न होता है।
जब तीन माह का गर्भ हो, तो लगातार नौ दिन तक सुबह या रात्रि में सोते समय स्त्री को आगे लिखा गया मंत्र अर्थसहित पढ़कर सुनाया जाए तथा मन में 'पुत्र ही होगा' ऐसा बार-बार दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण श्रद्धा के साथ संकल्प किया जाए, तो पुत्र ही उत्पन्न होता है।
पुमानग्निः पुमानिन्द्रः पुमान् देवो बृहस्पतिः । पुमांसं पुत्रं विन्दस्व तं पुमान्नु जायताम् ॥
अर्थात् अग्निदेवता पुरुष हैं, देवराज इंद्र भी पुरुष हैं तथा देवताओं के गुरु बृहस्पति भी पुरुष हैं, तुझे भी पुरुषत्वयुक्त पुत्र ही उत्पन्न हो । एक अन्य क्रिया भी करने का विधान यजुर्वेद में बताया गया है।
उसके अनुसार शुभ मंगलमय मुहूर्त में मांगलिक पाठ करके, गणेश आदि देवताओं का पूजन करके वटवृक्ष के नवीन अंकुरों तथा पल्लवों और कुश की जड़ को जल के साथ पीसकर उस रसरूप औषधि को पति गर्भिणी के दाहिने नाक और पुत्र की भावना से पिलाये
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥-यजुर्वेद 13/4
पुत्रभाव प्रवाहित आदि मंत्रों का पाठ करे। इन मंत्रों से सुसंस्कृत तथा अभिमंत्रित भाव-प्रधान नारी के मन में हो जाता है, जिसके प्रभाव से गर्भ के मांसपिंड में पुरुष के चिह्न उत्पन्न होते हैं। उपर्युक्त उद्धरण भ्रूण के लिंग परिवर्तन की पुष्टि करते हैं।
पुंसवन संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है।
ईश्वर की कृपा को स्वीकार करने तथा उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए प्रार्थना एवं यज्ञ का कार्य संपन्न किया जाता है। साथ ही यह कामना की जाती हैं कि वह समय पूर्ण होने पर परिपक्वरूप में उत्पन्न हो ।
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